मुंबई
देशव्यापी स्तर पर वायु प्रदूषण की निगरानी

छायाचित्र: अनीश कुमार 

अत्यधिक प्रदूषण के दिनों में, वायु में फैले छोटे-छोटे कण दृश्यता को कम करते हैं। ये कणिका पदार्थ अर्थात पार्टिकुलेट मैटर (पीएम2.5) कहलाते हैं, जिनका व्यास मापन 2.5 माइक्रोन से कम होता है एवं ये बिजली संयंत्रों, ऑटो-मोबाइल, एवं जंगल की आग आदि से उत्सर्जित होते हैं। भारत में पीएम2.5के संपर्क सहित, वायु प्रदूषण के कारण होने वाले हृदय-वाहिका रोगों एवं मृत्यु में तेजी से वृद्धि हुई है। वायु प्रदूषण खराब फसल उत्पादन का भी कारण बन सकता है तथा अधिकांश भारतीय नगरों का भविष्य भयावह दिखाई देता है। लेकिन, वायु प्रदूषण केवल एक शहरी समस्या नहीं है। इसलिए क्षेत्रीय प्रदूषण स्रोतों से उत्सर्जन को कम करने की दिशा में सक्रिय कदम उठाने के लिए, नीति निर्माताओं को देश भर में वायु के पीएम2.5 सांद्रता के सटीक ज्ञान की आवश्यकता है।

ऐसी रणनीतियों की तैयारी के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि इस कणिका पदार्थ की सांद्रता मापन के लिए निगरानी स्थलों की स्थापना की जाये। किन्तु यह निर्धारण करना आसान नहीं कि इन 'क्षेत्रीय प्रतिनिधि निगरानी स्थल' अर्थात रीजनली रिप्रेसेंटेटिव मॉनीटरिंग साइट्स या आरआरएमएस के लिए कौन से स्थल का चुनाव प्रायोगिक रूप से उचित होगा। इन विकल्पों को आसान बनाने के लिए, एक ही समय पर देश भर में प्रत्येक 100 किलोमीटर क्षेत्र के लिए कणिका पदार्थ की सांद्रता का आकलन करना होगा। यह तार्किक एवं आर्थिक रूप से चुनौती पूर्ण है। पूरे भारत पर इस तरह के मापन के अभाव में, भारतीय शोधकर्ताओं के एक नए अध्ययन ने सेटेलाइट डाटा के उपयोग से देश भर में सांद्रता का अनुमान लगाने के लिए एक वैकल्पिक पद्धति सामने रखी है।

भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान भोपाल (आईआईएसईआर भोपाल) में संबंधित लेखक के द्वारा दर्शाया गया यह अध्ययन, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी बॉम्बे), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली (आईआईटी दिल्ली), और आईआईएसईआर भोपाल के शोधकर्ताओं के साथ मिलकर संचालित किया गया था। पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, भारत सरकार, के द्वारा वित्त-पोषित यह अध्ययन शोध पत्रिका 'एट्मॉस्फियरिक एन्वायरॅनमेंट' में प्रकाशित किया गया था।

शोधकर्ताओं ने नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के एक्वा और टेरा उपग्रहों से प्राप्त सार्वजनिक रूप से उपलब्ध आँकड़ों का उपयोग किया है जो एकत्र जानकारी को प्रतिदिन दो बार पृथ्वी तल पर स्थित केन्द्रों पर भेजते हैं। "आँकड़ों की उपलब्धता एवं वैश्विक सूचना की सहजता उपग्रहीय आँकड़ों के उपयोग को भूतल आधारित मापन के लिए एक आकर्षक अनुपूरक बनाते हैं, विशेष रूप से जहाँ मापन उपलब्ध नहीं हैं," इस अध्ययन से संबंधित लेखिका, आईआईएसईआर, भोपाल में प्राध्यापक रम्या सुंदर रामन कहती हैं। उन्होंने इस अध्ययन के सह-लेखक आईआईटी दिल्ली के प्राध्यापक सागनिक डे के द्वारा दिये गए परिवर्तन गुणक का उपयोग करते हुये इन उपग्रहीय आँकड़ों का उपयोग देश भर में सतही स्तर पर कणिका पदार्थ सान्द्रण की गणना करने के लिए किया। यद्यपि सतही पीएम2.5 के शुद्ध आकलन के लिए इस पद्धति की सीमाएं हैं, तथापि जब तक प्रचलन अर्थात ट्रेंड उचित रूप से पकड़े जाते हैं, सतही पीएम2.5 के वास्तविक मूल्य से विचलन, परिणाम को प्रभावित नहीं करेगा।

शोधकर्ताओं ने देश भर में संभावित निगरानी स्थलों से स्थानीय जानकारी भी एकत्र की, जैसे कि मौसम का पूर्वानुमान, क्षेत्र में पीएम2.5 की सतह स्तर की सांद्रता को प्रभावित कर सकने वाले वायु पैटर्न तथा निगरानी के लिए इन स्थलों से केंद्रीय संस्थानों तक पहुंच में सुगमता आदि। उन्होंने इस जानकारी का उपयोग पूर्वानुमानित पीएम2.5 सांद्रता के साथ क्रमबद्ध रूप से किया ताकि उन प्रतिनिधि स्थलों पर इस प्रभाव को शून्य किया जा सके जो स्थलाकृति, वायु के वेग एवं  इसकी दिशा जैसे कारकों के संदर्भ में उनके आसपास के भौगोलिक क्षेत्रों के समान थे।

देश की लंबाई एवं चौड़ाई में स्थलों की तुलना करते हुये शोधकर्ताओं ने 11 स्थलों को अंतिम रूप से चुना: हैदराबाद में सांगारेड्डी रोड; महाबलेश्वर; दिल्ली रोड, रोहतक; मोहाली में सेक्टर 81; बीकानेर में जैसलमेर रोड; श्रीनगर में शल्लाबाग; कोलकाता के निकट श्यामनगर; जोरहट में पुलीबोर; मेसरा; भोपाल के निकट भौरी, एवं मैसुरु। इन स्थलों के मध्य, श्यामनगर एवं भौरी ने अपनी भौगोलिक निकटता का सर्वाधिक प्रतिनिधित्व किया ।

क्षेत्रीय प्रतिनिधि निगरानी स्थलों की स्थिति (आरआरएमएस)। छायाचित्र: निरव एल. लेकिनवाला [ वेंकटरमन एट एल. (2020) एवं लेकिनवाला एट एल. (2020) से रूपांतरित]

किसी स्थल को क्षेत्रीय प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करने से पहले, शोधकर्ताओं ने यह सुनिश्चित किया कि मापन के परिणाम उस स्थल के किसी विशेष लक्षणों से प्रभावित नहीं थे। इस प्रकार, अधिकांश स्थल यातायात के प्रमुख स्रोतों एवं धूल भरे कच्चे मार्गों से काफी दूर हैं, साथ ही  कृषि, औद्योगिक और घरेलू बायोमास दहन से मुक्त हैं, शोधकर्ता इंगित करते हैं। इन स्थलों ने कणिका पदार्थ की मौसमी विविधता को भी पकड़ा, जो भूमध्य सागर, अरब प्रायद्वीप, अरब सागर, और बंगाल की खाड़ी से लाई गई पश्चिमी पवन के कारण उत्पन्न हुयी थी।

यद्यपि कुछ स्थल, भौगोलिक स्थितियों जैसे कि पहाड़ी भू-भाग, अपरिहार्य औद्योगिक क्षेत्र निकटता, वैकल्पिक क्षेत्रों की अनुपस्थिति एवं समाजिक-राजनीतिक चुनौतियाँ आदि कारणों से अन्य स्थलों की तुलना में खरे नहीं पाये गए, तथापि उस क्षेत्र के लिए वे ही सर्वोत्तम चयन थे। उदाहरण के लिए, अत्यधिक प्रदूषित उद्योगों की निकटता सम्पूर्ण क्षेत्र के लिए प्राप्त आँकड़ों के पैटर्न में बाधा पहुँचा सकती है। लेकिन, रोहतक जैसे स्थलों में एक ऐसे उपयुक्त आरआरएमएस की खोज करना अत्यंत कठिन है जिसके निकट कोई उद्योग न हो।

वर्तमान में, ग्यारह क्षेत्रीय प्रतिनिधि स्थलों पर पीएम2.5 मापन चल रहे हैं और आँकड़ों का विश्लेषण किया जा रहा है। "फिल्टर आधारित पीएम2.5नमूने पहले ही आरआरएमएस में तैनात किए जा चुके हैं, एवं वायु नमूनों का मापन प्रारम्भ हो चुका है," आईआईटी मुंबई के प्राध्यापक एवं इस अध्ययन के सह लेखक मणिभूषण कहते हैं। मापन नमूनों के फिल्टर को बदलने और उन्हें निकटतम रासायनिक विश्लेषण प्रयोगशाला में ले जाने के लिए विस्तृत योजनाएं और कार्यक्रम निर्धारित हैं।

उपग्रह आँकड़ों पर आधारित इस अध्ययन में प्रस्तावित अनूठा दृष्टिकोण आरआरएमएस की स्थापना के लिए मानव प्रयासों और वित्तीय लागतों को कम करने में सक्षम रहा है। इसके अतिरिक्त, इसने दुनिया भर के ऐसे स्थलों के लिए एक रूपरेखा भी तैयार की है जहाँ नमूना नेटवर्क तैयार करने के लिए आवश्यक भूतल मापन कठिनाई युक्त है। शोधकर्ताओं को विश्वास है कि ये निगरानी स्थल वायु गुणवत्ता की निगरानी के लिए दीर्घकालिक आवश्यकताओं को हल कर सकेंगे।

 

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