Mumbai
प्रतिनिधि चित्र श्रेय: पिक्साहाइव

भारत की भौगोलिक स्थिति एवं उष्णकटिबंधीय प्रावृषिक (मानसूनी) जलवायु इस क्षेत्र को बाढ़ (फ्लड) एवं चक्रवात जैसी आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बनाते है। विशेषकर समुद्र तटों एवं नदी क्षेत्रों में इसका प्रकोप अधिक होता है। प्रत्येक वर्ष देश पांच से छह उष्णकटिबंधीय चक्रवातों का सामना करता है जिनमें से दो या तीन गंभीर प्रकृति के होते हैं। ये आपदाएं जन-धन की तात्कालिक हानि के साथ-साथ सरकार पर भी अत्यधिक वित्तीय भार डालती हैं।

बाढ़ एवं चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के पश्चात होने वाले सहायता के व्यय का बड़ा भाग राज्य सरकार को वहन करना होता है, जो उसकी वित्त व्यवस्था को प्रभावित करता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) की सुश्री नंदिनी सुरेश, प्राध्यापिका तृप्ति मिश्रा एवं प्राध्यापक डी. पार्थसारथी द्वारा किये गए नए अध्ययन के अंतर्गत 24 वर्षों (1995-2018) में 25 राज्यों पर होने वाले बाढ़ एवं चक्रवातों के वित्तीय प्रभाव का विश्लेषण किया गया। यह शोध इंटरनेशनल जर्नल ऑफ डिजास्टर रिस्क रिडक्शन में प्रकाशित हुआ है।

परंपरागत रूप से आपदा निस्तारण निधि, आर्थिक हानि एवं हताहतों तथा प्रभावितों की संख्या के मूल्यांकन पर आधारित क्षति-व्यय के आकलन पर निर्भर होती है। ये मूल्यांकन बहुधा असंगत एवं पक्षपातपूर्ण होते हैं। अत:

“हमने मौसम एवं भौगोलिक स्रोतों (IBTrACS एवं भारतीय मौसम विज्ञान विभाग) के आंकड़ों पर विश्वास किया ताकि चक्रवात की शक्ति (वायु की गति का उपयोग करके) एवं बाढ़ की गंभीरता (असामान्य वर्षा के आधार पर) का सटीक मापन किया जा सके,” सुश्री नंदिनी सुरेश कहती हैं।

इस जानकारी के साथ शोधकर्ताओं ने एक आपदा तीव्रता सूचकांक (डिजास्टर इंटेंसिटी इंडेक्स; DII) बनाया, जो समस्त प्रकार की आपदाओं को समान रूप से महत्व देता है। विसंगतियों एवं पूर्वाग्रहों से रहित यह विधि आपदा प्रभावों को स्पष्ट रूप से प्रकट करती है, विशेषकर बाढ़ एवं चक्रवातों के लिए, जिनके कारण अध्ययन अवधि के समय भारत में आपदा से 80 % हानि हुई।

अध्ययन में पैनल वेक्टर ऑटो रिग्रेशन (वीएआर) नामक सांख्यिकीय प्रतिरूप (मॉडल) का उपयोग किया गया ताकि परीक्षण किया जा सके कि एक वर्ष से लेकर आगामी कुछ वर्षों तक राजस्व एवं व्यय एक दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं। यह प्रतिरूप विभिन्न राज्यों के मध्य के अंतर को ध्यान में रखता है साथ ही सुनिश्चित करता है कि पूर्व की आर्थिक स्थितियाँ आपदा की गंभीरता से सम्बंधित गणनाओं को अनुचित रूप से प्रभावित न करें। इस प्रकार यह प्रतिरूप आपदाओं से संबंधित वित्तीय प्रभावों का अध्ययन करने का एक विश्वसनीय मार्ग प्रदान करता है।

अध्ययन से स्पष्ट होता है कि आपदाएं प्रभावित राज्यों पर अत्यधिक वित्तीय भार डालते हुए सर्वप्रथम राज्य व्यय को बढ़ाती हैं। निकासी, चिकित्सा सहायता, भोजन एवं आश्रय जैसे तात्कालिक सहायता प्रयासों के लिए पर्याप्त धन निर्धारित करना सरकार की प्राथमिकता होती है। आपदा के उपरांत उसे मार्गों, सेतु एवं घरों जैसे आवश्यक मूलभूत संरचना के पुनर्निर्माण में निवेश करना होता है। साथ ही आपदा सरकार के राजस्व को कम करती हैं। चूंकि कृषि, व्यापार तथा व्यवसाय बहुधा बाधित होते हैं, अत: इन सेवाओं से प्राप्त होने वाले कर संग्रह एवं आय कम हो जाती है। अध्ययन एक ऐसे चक्र को व्यक्त करता है जिसमें व्यय की वृद्धि एवं घटता हुआ राजस्व, वित्तीय घाटे को भली-भांति परिलक्षित करते हैं। 

इस प्रकार निर्मित डीआईआई से प्राप्त निष्कर्षों से ज्ञात होता है कि आपदाएं विभिन्न राज्यों को अलग-अलग रीति से प्रभावित करती हैं। अनावृष्टि (ड्राट्स) एवं यदाकदा बाढ़ का सामना करने वाले मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ जैसे अल्प आपदा-प्रवण राज्य, अपने स्वयं के संसाधनों से सहायता प्रबंधन कर सकते हैं एवं कम वित्तीय हानि उठाते हैं। साथ ही आपदा की तीव्रता लोगों की आय या उत्पादन को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त नहीं होती। अत: इन राज्यों में कर अथवा राजस्व की कोई हानि नहीं होती। दूसरी ओर बहुधा चक्रवात एवं बाढ़ का सामना करने वाले ओडिशा, आंध्र प्रदेश एवं पश्चिम बंगाल जैसे आपदा-प्रवण तटीय राज्यों में निस्तारण व्यय एवं राजस्व हानि अधिक होती है। परिणामस्वरूप ये बहुधा ऋण जैसे बाह्य वित्तीय पोषण पर निर्भर रहते हैं, जिससे राज्य-ऋण में वृद्धि होती है एवं अन्य विकास परियोजनाओं को वित्त प्रदान करना कठिन हो जाता है।

राष्ट्रीय एवं राज्य आपदा सहायता कोष (एनडीआरएफ एवं एसडीआरएफ) के द्वारा प्रस्तावित सहायता राशि के प्रभावी एवं त्वरित वितरण हेतु इसके बेहतर अनुकूलन के प्रयास किये जा सकते है। राज्य आपदा सहायता कोष से सहायता कार्यों की 25% की अधिकतम सीमा जैसी नियमावली एवं कार्यविधि संबंधी कुछ विशिष्ट आवश्यकतायें सहायता निधि के सुचारू उपयोग में अवरोध उत्पन्न कर सकती हैं। इन प्रक्रियाओं के सरलीकरण के द्वारा सहायता निधि के उपयोग को अधिक प्रभावी बनाया जा सकता है।

अध्ययन अग्रसक्रिय (प्रो-एक्टिव) आपदा-संकट वित्तपोषण तंत्र की आवश्यकता पर बल देता है, जैसे कि लचीले अनुबंध (रेसिलेंस बॉन्ड), आपदा बीमा एवं आपदा अनुबंध पत्र (कैटस्ट्रोफी बॉन्ड्स)। लचीले अनुबंध पत्र, आपदा निवारण परियोजनाओं में निवेश को एवं आपदा प्रभावों को कम करने से संबंधित उपक्रमों को प्रोत्साहित करते हैं। प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति हेतु आपदा बीमा व्यक्तियों, कंपनियों या सरकारों को सहयोग करता है। आपदा अनुबंध पत्र के द्वारा सरकार या संगठन आपदा संकट को निवेशकों पर स्थानांतरित कर सकते हैं, तथा निवेशक कोई आपदा न होने तक ब्याज प्राप्त करते हैं।

सुश्री नंदिनी का कहना है, “इन उपायों से आपात स्थिति के समय त्वरित धन प्राप्त हो सकता है तथा आपदाओं के उपरांत बाह्य ऋण लेने की आवश्यकता कम होती है।”

यद्यपि इन साधनों से होने वाले लाभ के प्रति जनता, सरकार एवं हितधारकों की अनभिज्ञता, भारत में इन उपायों के क्रियान्वयन को चुनौतीपूर्ण बनाती है। आपदा बीमा अधिमूल्य (प्रीमियम) की उच्च लागत एवं लचीले अनुबंध पत्र के निर्गमन या उन्हें राज्य के बजट में सम्मिलित करने के लिए स्पष्ट वित्तीय एवं विधिक संरचना का अभाव, अन्य प्रमुख चुनौती है। 

जलवायु-सह्य (क्लायमेट रेसिलेंट) अर्थव्यवस्था के निर्माण के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी की भी आवश्यकता है। सरकारें जलवायु-सह्य मूलभूत संरचना में निवेश करने एवं सतत-विकास (सस्टेनेबिलिटी) संबंधी नियमों को लागू करने के लिए व्यवसायों को कर लाभ का प्रस्ताव दे सकती हैं। 

सरकारों के लिए बजट की सीमा में रहते हुए आपदा निवारण का सामान्य उपाय है, अन्य परियोजनाओं से धन जुटाना। यद्यपि ऋण भुगतान, वेतन अथवा निवृत्ति-वेतन जैसे निश्चित व्यय से धन निकालना कठिन होता है क्योंकि यह बजट का बड़ा भाग है जो विधि द्वारा पूर्व निर्धारित होता है। सरकारों को लचीले बजट, वैकल्पिक योजनाओं तथा आवश्यकता के अनुरूप व्यय को समायोजित करने की त्वरित तकनीकों की आवश्यकता होती है, ताकि वे आपात स्थिति में निधि का पुनः आवंटन शीघ्रता पूर्वक कर सकें। 

अध्ययन सूचित करता है कि प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली, चक्रवात आश्रय एवं लचीली मूलभूत संरचनाओं में राज्य निवेश करें एवं भूमि के सतत (सस्टेनेबल) उपयोग को प्रोत्साहित करें ताकि जलवायु परिवर्तन का आर्थिक प्रभाव एवं आपदाओं के निवारण की दीर्घकालिक लागत कम हो सके। कई राज्यों ने इस दिशा में प्रगति की है जैसे तमिलनाडु की अग्रिम चक्रवात अनुवीक्षण प्रणाली (अडवांस्ड सायक्लोन मॉनिटरिंग सिस्टम), केरल का जलवायु-अनुकूल नगर नियोजन एवं ओडिशा तथा कई अन्य राज्यों में जलवायु-संबंधी आयव्ययक अनुवीक्षण (बजट ट्रैकिंग) का आरम्भ।

जलवायु परिवर्तन के चलते आपदाओं के प्रमाण एवं तीव्रता में होने वाली वृद्धि के कारण भारतीय राज्यों को अधिक वित्तीय चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।

सुश्री नंदिनी ने बताया कि “इन उपायों को अपनाकर देश जीवन एवं मूलभूत संरचनाओं की रक्षा करते हुए दीर्घकालिक वित्तीय संकटों को कम कर सकता है तथा एक सुदृढ़ एवं अधिक टिकाऊ भविष्य का निर्माण कर सकता है।”

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