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दक्षिण एशिया, विशेष रूप से भारत, दुनिया में 'चीनी केंद्र' के नाम से जाना जाने लगा है। यह गन्ना पैदा करने की वजह से नहीं है बल्कि टाइप 2 मधुमेह से पीड़ित व्यक्तियों की बढ़ती संख्या के कारण है- एक ऐसी बीमारी जिसमें या तो पैंक्रियास पर्याप्त इंसुलिन का उत्पादन नहीं करता या शरीर की कोशिकाएँ उत्पादित इंसुलिन का उपयोग नहीं कर पातीं । यह एक ऐसी बीमारी है जो अगर सही समय पर ध्यान न दिया जाए तो बढ़ती जाती है और अक्सर यह बीमारी किन्हीं आनुवांशिक कारणों से होती है। मधुमेह का इलाज महंगा होता है और अगर एक रिपोर्ट की मानें तो मधुमेह रोगियों को सालाना 6000-10000 रुपये तक खर्च करने पड़ते हैं। अगर समय रहते इस  बीमारी पर काबू न पाया गया तो अनुमान हैं कि 2030 तक भारत को मधुमेह से तक़रीबन 150 अरब अमेरिकी डॉलर तक का नुक्सान हो सकता है।

‘द लंसेट डायबिटीज एंड एंडोक्राइनोलॉजी जर्नल’ में प्रकाशित अध्ययन की एक श्रृंखला में, भारत, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने दक्षिण एशियाई देशों (बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका) में टाइप 2 मधुमेह की बढ़ती महामारी, इसके उपचार और इस बीमारी से जुड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की चुनौतियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी है। ये सभी देश समान सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियों को साझा करते हैं जो इस रोग की घटना के समान पैटर्न में योगदान देते हैं।

श्रृंखला का पहला भाग उन पहलुओं को छूता है जो इन देशों में मधुमेह के कारण हो सकते हैं। वैज्ञानिकों ने बताया कि खान-पान की गुणवत्ता में कमी, शारीरिक गतिविधि में कमी, आवश्यक चिकित्सीय देखभाल की कमी और निष्क्रिय जीवन शैली इस बीमारी के होने के मुख्य कारण हैं। इंटरनेशनल डायबिटीज फेडरेशन द्वारा प्रकाशित 2017 डायबिटीज एटलस के मुताबिक, दक्षिण एशिया में लगभग 4% -8.8% वयस्कों में मधुमेह है, जिसमें भारत के लोगों की संख्या सबसे अधिक है। लगभग 16·7% से 26·1% व्यक्ति अधिक वजन वाले हैं, और 2.9% से 6· 8% लोग मोटापे से ग्रस्त हैं।

संशोधकों का कहना है कि, "बच्चों, किशोरों और महिलाओं का अधिक वजन एवं मोटापा टाइप 2 मधुमेह के बढ़ते हुए खतरे की घंटी है।"

भारत में, लगभग 7.2 करोड़ वयस्कों में आज मधुमेह है, जबकि 1990 में सिर्फ 2.6 करोड़ ही मधुमेह रोगी थे।हालाँकि यह संख्या 2045 तक बढ़कर 13 करोड़ हो जाएगी । पत्रिका लांसेट में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में बताया गया है कि इस बीमारी की व्यापकता और राज्यों की समृद्धि में सीधा सम्बन्ध हैं । मधुमेह से ग्रसित अधिकांश व्यक्ति तमिलनाडु, केरल और दिल्ली के समृद्ध राज्यों से ही हैं। हालाँकि पिछले 20 सालों में देश के हर राज्य में मधुमेह में वृद्धि हुई है, लेकिन कम विकसित राज्यों में इस बीमारी की वृद्धि की दर सबसे ज्यादा है, जो गंभीर चिंता का विषय है।

एक और कारण है आनुवंशिक गुण, जिसे कभी-कभी दक्षिण एशियाई या भारतीय फिनोटाइप भी कहा जाता है। इस फिनोटाइप के चलते दक्षिण एशियाई लोगों में कम बीएमआई (बॉडी मास इंडेक्स) होने के बावजूद मधुमेह के होने का जोखिम अधिक रहता है। इसका एक दुष्परिणाम यह भी है कि बहुत कम उम्र में ही मधुमेह की शुरुआत होना जो बहुत तेजी से बीमारी का भयंकर रूप ले लेता है। वैज्ञानिकों का तर्क है कि चूंकि दक्षिण एशिया में मधुमेह के कई सारे कारण हैं, इसलिए इसकी रोकथाम को लक्षित करने वाले कार्यक्रमों की तुरंत आवश्यकता है।

श्रृंखला के दूसरे भाग में, वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि कैसे दक्षिण एशिया में मधुमेह का नैदानिक रूप से प्रबंधन किया जा रहा है और बीमारी से ग्रसित लोगों को सही उपचार मिल सके, इसके लिए तमाम तरीकों का सुझाव दिया गया है। इस अध्ययन के मुताबिक, दक्षिण एशिया में मधुमेह के बढ़ते खतरे का मुख्य कारण है रोग के बारे में जागरूकता की कमी , निदान में देरी अथवा अपर्याप्त उपचार। अक्सर कई व्यक्ति मधुमेह से लड़ने के लिए प्रभावरहित और हानिकारक वैकल्पिक दवाओं की ओर रुख कर लेते हैं और सुझाये गए जीवनशैली में परिवर्तनों एवं दवाइयों का पालन नही करते। इसलिए ज्यादातर वे छोटी उम्र में ही इस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं और बाकी का जीवन इस बीमारी से जूझते हुए व्यतीत करते है और कई बार मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।

संशोधकों का कहना है, "दक्षिण एशिया में मधुमेह रोगियों का उपचार उनकी विभिन्न प्रकार की जीवनशैली, फिनोटाइप, आस पास का पर्यावरण, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक परिस्थितिओं के आधार पर किया जाना चाहिए।" फोर्टिस सेंटर ऑफ एक्सेलन्स फॉर डायबिटीज, मेटाबोलिक रोग और एंडोक्राइनोलॉजी और श्रृंखला के दूसरे भाग के मुख्य लेखक डॉ अनुप मिश्रा, कहते हैं कि मधुमेह को अगर दूर रखना है तो सक्रिय जीवनशैली अपनानी होगी, और ये जितना जल्दी हो सके उतना अच्छा है।

"शारीरिक गतिविधि और पोषण को प्राथमिकता देने के लिए, स्कूल में पाँचवी कक्षा से ही शुरू करना होगा। भविष्य में  विवाहित होने जा रहे युवा वयस्कों को सही जीवनशैली और पोषण प्रणालियों /प्रथाओं के बारे में जानने के लिए एक छोटा सा कोर्स करना चाहिए, जिससे कि आगे आने वाली पीढ़ियों सहित पूरे परिवार में /का सही पोषण और देख रेख हो सके तथा इस बीमारी से बचा जा सके। "वे कहते हैं।

यद्यपि एक ही पैमाना सभी देशों में प्रभावशाली नहीं हो सकता, वैज्ञानिकों का सुझाव है कि प्राथमिक देखभाल, प्रारंभिक निदान, चिकित्सकों के कौशल में सुधार और नैदानिक रूप से मधुमेह से निपटने के लिए हेल्थकेयर कर्मचारियों को प्रशिक्षण देकर इस बीमारी से लड़ा जा सकता है। यह सच है कि इसे पूरी तरह जड़ से खत्म नहीं किया जा सकता पर कोशिश करके इसको कम  अवश्य किया जा सकता है।

श्रृंखला का अंतिम भाग इस बात पर बल देता है कि कैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली मधुमेह के रोकथाम में एक सफल भूमिका निभा सकती है। चूंकि इस बीमारी का इलाज महंगा है, दक्षिण एशियाई देशों में रहने वाले बहुत से लोग इसे झेलने में सक्षम नहीं हैं। हालाँकि , अच्छी खबर यह है कि मधुमेह को रोका जा सकता है अगर जीवनशैली में बदलाव किये जाएँ और स्वास्थ्य देखभाल प्रबंधन पर ज़ोर दिया जाए। वैज्ञानिक प्रसवपूर्व, शिशु जीवन, बचपन और किशोरावस्था में मधुमेह की रोकथाम के लिए तय रणनीतियों की पुरजोर वकालत करते हैं।

इस अध्ययन का तर्क है कि सीमित साधन वाले दक्षिण एशिया के देशों को अगर सफलता प्राप्त करनी है तो आवश्यकता है कि वे ज़मीनी स्तर पर काम करना शुरू करें। वैज्ञानिकों का कहना है, "समुदाय स्तर पर शिक्षा, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण पर संगठित रूप से काम करने से यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि गैर-चिकित्सकीय देखभाल को बल मिले साथ ही सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मियों की मदद से इस बीमारी को रोकने का प्रयत्न किया जाये।" हालाँकि , ऐसा होने के लिए, सरकारों को एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी पड़ेगी और इस मधुमेह की बीमारी की रोकथाम और प्रबंधन के लिए आवश्यक धन आवंटित करने की जरुरत होगी।

यह सही है कि जब समस्या इतनी बड़ी हो, तो समाधान कैसे आसान हो सकता है। हालाँकि मधुमेह सभी को प्रभावित करता है, लेकिन बात अगर तीन सबसे कमजोर समूह की की जाए तो वो सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर श्रेणी, महिलाएँ और बच्चे होंगे  ऐसा डॉ. मिश्रा कहते हैं। समय की मांग है कि अगर मधुमेह को रोकना है तो स्थानीय खाद्य पदार्थों, सामुदायिक गतिविधियों और उनसे जुड़ी परम्पराओं को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा और साथ ही बड़े पैमाने पर पारम्परिक और सोशल मीडिया इत्यादि के ज़रिये इस बीमारी के बचाव और इलाज़ से जुड़े कई जागरूक अभियान और संदेशों को लोगों तक पहुँचाना पड़ेगा।

अंत में डॉ. मिश्रा कहते है कि, "इस जागरूकता अभियान को कम से कम एक दशक तक निरंतर चलाना पड़ेगा अगर सच में मधुमेह की इस महामारी में हम कोई बड़ा सुधार चाहते हैं"।

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