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Photo: Dennis C J / Research Matters

भारत की कुल स्थापित ऊर्जा में पवन ऊर्जा का योगदान १२  प्रतिशत है। इस स्थापित पवन ऊर्जा के वर्तमान स्रोत ज़मीन पर स्थित पवन ऊर्जा फार्म हैं। हालांकि भारत में आने वाले ५ वर्षों में समुद्र सतह पर पवन ऊर्जा उत्पादन की महत्वाकांक्षी योजना है। किन्तु यह इस समय कैसे संभव है जब हमारे समुद्र गर्म हो रहे हैं और समुद्र स्तर में बढ़ोतरी हो रही है? भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई के शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के  समुद्र पवन-ऊर्जा उत्पादन पर संभावित प्रभाव को जानने के लिए एक क्रियाविधि विकसित की है।

समुद्र सतह पर लगाए जाने वाले पवन फार्म को अपतटीय पवन ऊर्जा फार्म कहते हैं। अतीत में किये गए अध्ययनों से पता चला है कि ज़मीनी पवन ऊर्जा फार्म के तुलना में अपतटीय पवन ऊर्जा फार्म ज़्यादा लाभदायक होते हैं। इस अध्ययन के सह-लेखक डॉ. सुमित कुलकर्णी बताते हैं कि, “अपतटीय ऊर्जा फार्म के कई फायदे हैं — समुद्र सतह पर तापमान प्रवणता और चिकनी इंटरफेस के कारण समुद्र पर हवा की गति लगभग २५  प्रतिशत अधिक रहती है। हवा की दिशा स्थिर रहती है और पवनचक्कियों के लिए छोटे टर्बाइनों की ही आवश्यकता होती है।

इस अध्ययन के दूसरे सह-लेखक प्रा. एम.सी. देव का कहना है कि इससे पहले चैन्नई स्थित राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि तटवर्ती प्लेटफार्मों की तुलना में अपतटीय प्लेटफार्म बनाने में १११ प्रतिशत अधिक लागत हो सकती है, किन्तु अपतटीय प्लेटफार्म से ऊर्जा उत्पादन में होने वाली १८४ प्रतिशत की बढ़ोतरी की तुलना में यह लागत बहुत कम है।

डॉ. कुलकर्णी यह भी बताते हैं कि अपतटीय पवन ऊर्जा उपयोग में अनेक चुनौतियां भी हैं। हवा की उपलब्धता वर्तमान और भावी जलवायु परिस्थितियों पर निर्भर करती है, जो कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण भिन्न हो सकती है। इसका कारण यह है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन वायुमंडलीय तापमान को प्रभावित करती है, इसके कारण वायुदाब और हवा की गति बदल सकती है। इन अध्ययनों के आधार पर एक ऐसा कम्प्यूटर मॉडल बनाने का प्रयास किया गया है, जो वायुमंडलीय कारकों पर मानव प्रेरित जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझकर हवा के पैटर्न का  भावी अनुमान कर सकता है।

इससे पहले किये गए अध्ययनों में जलवायु परिवर्तन से संबंधित हवा में होने वाली विभिन्न प्रकार की अनिश्चितताओं के बारे में बताया गया था। ऐसे परिदृश्यों में कम्प्यूटर अनुरूपण के द्वारा भविष्य में हवा के पैटर्न का पता लगाने के लिए जनरल सर्कुलेशन मॉडल (जीसीएम) नामक जलवायु मॉडल का उपयोग किया जाता है। यह एक प्रकार का कम्प्यूटर आधारित मॉडल है जो मौसम का पूर्वानुमान, समझ और जलवायु परिवर्तन का प्रक्षेपण करने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। हालांकि भारतीय जलवायु परिस्थितियों पर लागू करने के लिए एक जीसीएम एप्लीकेशन के विस्तृत ढांचे की कमी है। इस अध्ययन में इसी कमी को पूरा करते हुए भारतीय जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल एक नयी क्रियाविधि विकसित की गयी है। शोधकर्ताओं ने भविष्य में पवन ऊर्जा और मौसमी बदलावों का अनुमान लगाने के लिए इसी क्रियाविधि का उपयोग किया है।

शोधकर्ताओं ने इसी क्रियाविधि के आधार पर नए और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) द्वारा भारत के तीन समुद्र तटीय क्षेत्रों कन्याकुमारी, रामेश्वरम, और जाखाऊ को चुना है चूँकि यहां हवा की गति अनुकूल है। अनुकूल हवा की गति का अर्थ है कि इस क्षेत्र की औसत वार्षिक पवन क्षमता २०० वाट/स्के.मी. है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इन क्षेत्रों की औसत वार्षिक पवन क्षमता में पिछले २७ वर्षों की तुलना में आने वाले २७ वर्षों में पर्याप्त वृद्धि होगी। अपेक्षाकृत यह २५ प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है। हालांकि मानसून और गैर-मानसून महीनों में औसत पवन क्षमता में बदलावों के साथ ही साथ दक्षिणी प्रायद्वीपों में अल-नीनो दक्षिणी दोलन घटना भी इसको प्रभावित करेगा।

अध्ययन का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के अलग-अलग स्थानों पर भिन्न प्रभाव पड़ेंगे, हो सकता है कुछ जगहों पर पवन ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि हो, और कुछ जगहों पर ऊर्जा उत्पादन कम होता पाया जाये। हालाँकि तत्कालीन अध्ययन के विश्लेषण से यह लगता है कि चिन्हित तीन अपतटीय भारतीय स्थानों पर ऊर्जा क्षमता में वृद्धि हो सकती है। प्रोफेसर देव यह विश्वास दिलाते हैं कि पवन उद्योगों को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की चिंता किए बिना आगे बढ़ना चाहिए और अपने प्लांट लगाने चाहिए।

अंततः, भारत में अपतटीय पवन ऊर्जा उत्पादन के लिए जलवायु परिवर्तन लाभदायक होने की संभावना है। अध्ययन में पाया गया है कि भविष्य में इन स्थानों पर औसत वार्षिक पवन ऊर्जा उत्पादन क्षमता में बड़े पैमाने पर बढ़त की संभावना है। अपतटीय पवन ऊर्जा उत्पादन के लिए जलवायु परिवर्तन अच्छा हो सकता है!

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