Mumbai
छवि श्रेय : फ़्रीपिक, नायर एट अल. 2023 एवं साइंटिफिकली

पार्किंसन रोग एक तंत्रिका अपक्षयी (न्यूरोडीजेनेरेटिव) विकार है जो मस्तिष्क की तंत्रिकाओं (न्यूरॉन्स) को प्रभावित करता है। 1817 में पहली बार जेम्स पार्किन्सन ने इस स्थिति का वर्णन किया था, जिनके नाम पर इस विकार को पार्किंसन रोग कहा गया। मस्तिष्क में डोपामाइन उत्पन्न करने वाली डोपामिनर्जिक नामक तंत्रिकाओं की उत्तरोत्तर क्षति पार्किंसन रोग के अभिलक्षणों को दर्शाती है। डोपामाइन एक हार्मोन एवं एक न्यूरोट्रांसमीटर है। यह एक ऐसा रसायन है जिसके माध्यम से न्यूरॉन्स एक दूसरे से बात करते हैं। डोपामाइन मांसपेशियों की सुचारू एवं नियंत्रित गतिविधियों के समन्वय के साथ-साथ मनोदशा, स्मृति, नींद एवं सीखने जैसे अन्य कार्यों को विनियमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। डोपामिनर्जिक न्यूरॉन्स की कमी के परिणामस्वरूप डोपामाइन का स्तर कम हो जाता है जो किसी व्यक्ति की शारीरिक गतिशीलता के साथ-साथ अन्य कार्यों को भी प्रभावित कर सकता है।

पार्किंसन एक घातक रोग है जिसके प्रारंभिक लक्षणों की पहचान विशिष्टत: कठिन है। जब तक लक्षण स्पष्ट एवं गंभीर नहीं हो जाते तब तक लोगों में इस रोग की पहचान नहीं हो पाती, एवं रोग की विकसित अवस्था में उपचार करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। पार्किंसन रोग के प्रमुख लक्षणों में कंपकंपी, मांसपेशियों की कठोरता, चाल का मंद होना एवं अस्थिर शारीरिक मुद्रा सम्मिलित हैं। जैसे-जैसे रोग में वृद्धि होती है, व्यक्तियों को शारीरिक संतुलन एवं समन्वय में कठिनाई के साथ साथ कई अन्य लक्षणों जैसे अनिद्रा, मनोभावों में परिवर्तन एवं संज्ञानात्मक क्षति का अनुभव हो सकता है।

पार्किंसन रोग के सुप्त लक्षण असतत रूप से प्रारम्भ होते हैं एवं समय के साथ रोग के प्रबल होने पर अधिक दृढ़ होते जाते हैं। लक्षणों के स्पष्ट रूप से प्रकट होने के पूर्व ही लगभग 50% से 80% डोपामिनर्जिक न्यूरॉन्स क्षतिग्रस्त हो चुके होते हैं। इससे प्रारंभिक निदान अत्यधिक कठिन परन्तु महत्वपूर्ण हो जाता है जिससे आगे चलकर रोग के नकारात्मक प्रभावों को कम करना चुनौतेपूर्ण हो जाता है।

प्रारंभिक अवस्था में ही पार्किंसन रोग का पता लगाने की दिशा में प्रगति करते हुए, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई (आईआईटी मुंबई) एवं मोनाश विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने एक अभिनव विधि प्रस्तावित की है जो रोगियों में कोई स्पष्ट लक्षण आने के पूर्व ही पार्किंसन रोग का शीघ्र एवं सरल रीति से पता लगा सकेगी। यह अध्ययन व्यक्तियों के चलने की शैली (पैटर्न) में होने वाले किंचित अंतर या विसंगतियों का विश्लेषण कर एवं पूर्वस्थापित गणितीय युक्तियों का उपयोग कर पार्किंसन रोग का पता लगाने का प्रस्ताव देता है।

पार्किंसन रोग मुख्य रूप से चलने, बात करने एवं वस्तुओं को पकड़ने जैसी शारीरिक गतिविधियों पर नियंत्रण की क्षति के रूप में प्रकट होता है। इस तथ्य के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि पार्किंसन रोग से प्रभावित व्यक्तियों के चलने की शैली में समय के साथ असतत रूप से (इंटरमिटेंट) किंचित अंतर आ सकता है। उन्होंने डायनेमिक टाइम वॉरपिंग (डीटीडब्ल्यू) नामक अल्गोरिद्म का उपयोग करके रोगियों के चलने की शैली के डेटा ('गेट' डेटा, gait data) का विश्लेषण किया। डीटीडब्ल्यू एक ऐसा अल्गोरिद्म है जो दो अस्थायी अनुक्रमों (समय के साथ होने वाली घटनायें) के मध्य तुलना कर सकता है, जैसे किसी व्यक्ति का चलना, लिखना या बोलना।

“डीटीडब्ल्यू सामान्यत: दो अस्थायी अनुक्रमों, जो गति में भिन्न हो सकते हैं, के मध्य समानता खोजने वाला एक अल्गोरिद्म है। उदाहरण स्वरुप, एक ही व्यक्ति का विभिन्न गति में चलना,'' आईआईटी मुंबई - मोनाश रिसर्च अकादमी में डॉक्टरेट छात्रा एवं अध्ययन की प्रमुख लेखिका सुश्री पार्वती नायर बताती हैं।

अध्ययन के समय उन्हें आईआईटी मुंबई की प्राध्यापक मरियम शोजेई बाघिनी का मार्गदर्शन एवं मोनाश विश्वविद्यालय के प्राध्यापक होम चुंग का परामर्श प्राप्त हुआ।

डीटीडब्ल्यू का उपयोग करके चाल (गेट डेटा) की तुलना करते समय, एक ही घटना के किसी भी दो चक्रों के मध्य असतत रूप से होने वाला कोई भी सूक्ष्म अंतर, अन्य दो भिन्न घटनाओं की तुलना में उच्च अंतर के रूप में दिखाई देता है।

“शक्ति को क्षीण करने वाले पार्किंसन रोग का सबसे आम लक्षण है व्यक्ति की चाल में विक्षुब्धता (डिस्टर्ब्ड गेट)। अतएव हमने एक सामान्य (जेनेरिक) अल्गोरिद्म (डीटीडब्ल्यू) विकसित किया है जो असतत रूप से विक्षुब्ध होने वाली चाल (इन्टर्मिटेंट गेट डिस्टर्बेंस), जो किसी भी प्रारंभिक लक्षण के साथ प्रकट हो सकती है, उसका पता लगा सके,” सुश्री नायर कहती हैं।

के-मीन्स क्लस्टरिंग नामक गणितीय युक्ति के उपयोग से डेटा को समूहों में व्यवस्थित किया जाता है, जिससे डीटीडब्ल्यू डेटा के आधार पर परीक्षण किए जा रहे प्रत्येक व्यक्ति के लिए पहचानने योग्य विशिष्ट लक्षणों को निकाला जा सकता है।

सुश्री नायर बताती हैं, "इन विशिष्ट लक्षणों को एक साधारण लॉजिस्टिक रिग्रेशन (एक सांख्यिकीय प्रतिरूप) में प्रेषित किया जाता है ताकि प्रारंभिक पार्किंसन लक्षणों का सरलता एवं सफलतापूर्वक पता लगाया जा सके। पारंपरिक सांख्यिकीय तकनीकों के उपयोग से यह कर पाना चुनौतीपूर्ण था"। वह आगे कहती हैं, "भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में चलने की शैली और गति में भिन्नता होती है। डेटा पर किसी भी संभावित विपरीत प्रभाव (आउटलायर्स) से बचने के लिए हमारे अल्गोरिद्म में डीटीडब्ल्यू एवं के-मीन्स का उपयोग करके प्रत्येक व्यक्ति के लिए लक्षणों का निष्कर्षण अलग से किया जाता है"।

शोधकर्ताओं ने कुल 166 प्रतिभागियों पर अपने सांख्यिकीय प्रतिरूप का परीक्षण किया, जिसमें से 83 प्रतिभागी पार्किंसन रोग की प्रारंभिक अवस्था में थे, 10 मध्य अवस्था में थे एवं 73 स्वस्थ व्यक्ति थे जिनसे नियंत्रण समूह बनाया गया। उन्होंने तीन पूर्व अध्ययनों से रोगियों के चाल के आंकड़ों (गेट डेटा) का उपयोग किया जिसे फिजियोनेट नामक डेटाबेस में संकलित किया गया है। उन्होंने देखा कि उनके प्रतिरूप ने प्रतिभागियों में 98% की प्रभावी सत्यता से पार्किंसन का पूर्वानुमान किया जिसमें 89% रोगी पार्किंसन के प्रारंभिक चरण में थे। साथ ही यह तकनीक इतनी व्यापक (जेनेरिक) है कि शोधकर्ता मानते हैं कि इस विधि का उपयोग अन्य तंत्रिका अपक्षयी (न्यूरोडीजेनेरेटिव) विकारों का पता लगाने के लिए भी किया जा सकता है, जहां शरीर के चलने से संबंधित कार्य प्रभावित होते हैं।

“शारीरिक क्रियाओंसे जुड़े पार्किंसन के कई और प्रारंभिक लक्षण हैं, जो स्पष्ट नहीं दिखते किन्तु मानव शरीर की सूक्ष्म गतिविधियों से संबंध रखते हैं। लक्षण ढूंढने के लिए सही क्रिया का चुनाव एवं संवेदक की सही स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण हैं जो कि इस शोध का भाग है। लक्षणों के लिए पुनरावृत्ति पैटर्न विश्लेषण (रिपीटाबिलिटी पैटर्न अनालिसिस) के साथ एवं निश्चित समयान्तराल पर, ऐसे धारण योग्य संवेदकों (वेअरेबल सेंसर्स) के आउटपुट एकत्र कर पार्किंसन का प्रारंभिक स्थिति में पता लगाया जा सकता है। इस दिशा में हमारा शोधकार्य चालू है।” प्रोफेसर मरियम शोजेई बाघिनी बताती है।

पार्किंसंन पर विजय इसकी प्रारंभिक जानकारी में निहित है। यद्यपि यह रोग असाध्य है तथापि चिकित्सकों के लिए सही उपचार प्रक्रिया प्रारम्भ करने में शीघ्र निदान सहायक हो सकता है एवं आगामी चरणों में लक्षणों की गंभीरता को कम कर सकता है। साथ ही प्रारंभिक उपचार संभावित रूप से शारीरिक संचलन के विशिष्ट लक्षणों को रोकने, रोगी के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाने एवं उपचार की लागत को कम करने में सहायता कर सकता है।

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