मुंबई
पूरबी देशपांडे

आईआईटी बॉम्बे के वैज्ञानिकों ने यह प्रदर्शित किया है कि दवाओं के मिश्रण का उपयोग, दवा प्रतिरोधी जीवाणुओं  के कारण होने वाली बिमारी टीबी के उपचार  में सहायता कर सकता है।

यह कोई नयी बात नहीं रही की प्राणघातक टीबी के लिए ज़िम्मेदार जीवाणु, माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्लोसिस आज की अधिकाँश दवाओं का प्रतिरोध कर सकता है। कई जीवाणु आम एंटीबायोटिक दवाओं से लड़ने के लिए प्रभावी दवाओं का प्रतिरोध विकसित कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें मात्र  एक "नई" दवा की आवश्यकता नहीं है, अपितु एक नयी उपचार विधि की आवश्यकता है जो दवा प्रतिरोधी जीवाणुओं से लड़ सके। प्राध्यापक सारिका मेहरा और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी बॉम्बे) में उनकी अनुसंधान टीम ने आम तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले एंटीबायोटिक रिफाम्पिसिन का प्रभाव बढ़ाने के लिए एक नए विधि का आविष्कार किया है।

किंतु यह जीवाणु उसी दवा के प्रतिरोधी कैसे बन गए जो की पहले उन्हें मारने में सक्षम थे? इसके लिए एंटीबायोटिक दवाओं के अनियमित और अनुचित उपयोग को दोषी ठहराया जा सकता है। एंटीबायोटिक कोर्स को पूरा न करने की वजह से इन दवाओं के अंतः क्रियात्मक संपर्क के कारण, कई जीवाणु ने इन एंटीबायोटिक्स की उपस्थिति में जीवित रहने के लिए तंत्र विकसित कर लिए हैं। दुनिया भर में २,५०,००० मौतें और अकेले २०१५ में टीबी  के ४,८०,०० नए मामलों के लिए बहु-दवा प्रतिरोधी जीवाणु जिम्मेदार थे।

फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित, इस अध्ययन में, वैज्ञानिकों ने क्यूमीन हाइड्रोपेरोक्साइड (सीएचपी) नामक एक सक्रिय यौगिक के साथ रिफाम्पिसिन वितरित करके इसकी प्रभावकारिता में सुधार किया है। प्राध्यापक मेहरा, जिन्होंने इस अध्ययन का नेतृत्व किया, कहती हैं कि, "टीबी के खिलाफ दवाओं की संयोजन चिकित्सा भली-भांती काम करती है, हालांकि, मौजूदा दवाओं में से कई दवाएँ माइकोबैक्टेरियम के दवा प्रतिरोधी उपभेदों के खिलाफ अप्रभावी हैं। हमारे शोध का एक बड़ा केंद्र, प्रतिरोधी जीवाणु को एक सहायक के उपयोग से लक्षित करने के वैकल्पिक तरीकों को ढूंढना है - एक परिसर जो कि स्वयं में एंटीबायोटिक नहीं है, लेकिन मौजूदा एंटी-टीबी दवाओं के प्रभाव को बढ़ा सकता है"।

शोधकर्ताओं ने जीवाणुरोधी एजेंट (क्यूमीन हीड्रोपेरोक्सिडे) का उपयोग करके जीवाणुओं में 'ऑक्सीडेटिव तनाव' उत्पन्न करवाया। ऑक्सीडेटिव तनाव का मतलब मुक्त कणों (फ्री रेडिकल्स) और एंटीऑक्सिडेंट्स के बीच के संतुलन का बिगड़ना है।प्राध्यापक मेहरा बताती हैं, "ऑक्सीडेटिव तनाव के तहत, कई मुक्त कण उत्पन्न होते हैं और वे डीएनए जैसे सेल के विभिन्न घटकों पर हमला कर सकते हैं।"

खुद को ऑक्सीडेटिव तनाव से बचाने के लिए, जीवाणु इन हानिकारक मुक्त कणों को एंजाइम का उपयोग करके नष्ट कर देते हैं। हालांकि, यदि कोशिका में रेडिकल की मात्रा मौजूद एंजाइम से अधिक हो जाती है, तो रेडिकल (मुक्त कण) जीवाणु सेल के घटकों पर हमला करना शुरू कर देते हैं। शोधकर्ताओं ने क्यूमीन हाइड्रोपेरोक्साइड का उपयोग करके मुक्त कणों के उत्पादन को बढ़ाकर इस तंत्र का प्रयोग किया है, जो कोशिका झिल्ली को लक्षित करता है जिससे जीवाणुओं  की मृत्यु हो जाती है।

शोधकर्ताओं ने टीबी जीवाणुओं की अन्य संबंधित प्रजातियों जैसे कि माइकोबैक्टेरियम स्मेग्मैटिस और माइकोबैक्टेरियम बोविस  बीसीजी पर भी दवाओं के संयोजन का परीक्षण किया। उन्होंने इन जीवाणुओं  को एंटीबायोटिक रिफैम्पिसिन और ऑक्सीकरण एजेंट क्यूमीन हाइड्रोपेरोक्साइड के विभिन्न खुराक दिए। उन्होंने पाया कि यदि रिफाम्पिसिन को क्यूमीन हाइड्रोप्रोक्साइड के साथ संयोजन में प्रयोग किया जाता है, तो रिफाम्पिसिन की खुराक उसकी  सामान्य खुराक के मुकाबले १६ गुना कम हो जाती है। यदि दोनों की अलग-अलग सक्रियता को मापा जाए तो रिफाम्पिसिन अकेले ३२ माइक्रोग्राम / मिलीलीटर (एक बाल्टी में एक चुटकी के बराबर) की खुराक, या क्यूमीन हाइड्रोपेरोक्साइड की ३८० माइक्रोग्राम / मिलीलीटर की खुराक, जीवाणु वृद्धि को रोकने के लिए आवश्यक थी। लेकिन, जब वे दोनों संयोजन में दिए जाते हैं, तो रिफैम्पिसिन की थोड़ी सी मात्रा और क्यूमीन  हाइड्रोपेरोक्साइड की आधे से कम खुराक से ही असर होता दिखाई देता है। इसके अलावा, एक दवा प्रतिरोधी जीवाणु  जिसे विकास अवरोध के लिए रिफाम्पिसिन की ज़्यादा खुराक की आवश्यकता होती है, अब क्यूमीन हाइड्रोपेरोक्साइड के साथ संयोजन में कम खुराक से अवरुद्ध हो सकती है।

तो, जीवाणुओं पर दवाओं का संयोजन कैसे काम करता है? ज्यादातर मामलों में, एंटीबायोटिक्स के द्वारा इलाज करने में एक बड़ा मुद्दा यह होता है की - जीवाणु कोशिका इन एंटीबायोटिक्स को सोख नहीं पाते। जितनी ज़्यादा दवाई अवशोषित की जाती है उतनी ही बेहतर उसकी प्रभावकारिता होती है। इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने पाया कि क्यूमीन हाइड्रोप्रोक्साइड की उपस्थिति में, कोशिकाओं द्वारा रिफैम्पिसिन आसानी से सोख लिया गया। प्रवेश करते ही , रिफैम्पिसिन मुक्त कणों को बेअसर करने वाले एंजाइम के उत्पादन को रोकता है। इस प्रकार उत्पादित मुक्त कणों ने जीवाणु कोशिकाओं में ऑक्सीडेटिव तनाव पैदा किया और इसके परिणामस्वरूप इन कोशिकाओं की मृत्यु हुई।

संयोजन में दवाओं का उपयोग करने से दवा की खुराक भी कम लगती है।यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे अतिरिक्त दुष्प्रभावों   का खतरा कम हो जाता है।"स्वस्थ मानव और जीवाणु कोशिकाओं पर मुक्त कणो का प्रभाव एक समान होता है।यह डीएनए और कोशिका के विभिन्न घटकों को नुकसान पहुंचा सकता है तथा कैंसर और अल्जाइमर जैसी बीमारियों के खतरे को बढ़ा देता है ", प्राध्यापक  मेहरा बताती हैं।

'सुपरबग' को ध्यान में रखते हुए, यह अध्ययन निश्चित रूप से उनके मुकाबला करने की क्षमता रखता है।

प्रोफेसर मेहरा ने इस शोध के भविष्य की दिशा पर रोशनी डालते हुए  कहा कि, "अब तक प्राप्त आंकड़े बहुत ही आशाजनक हैं, इसलिए अब हम इसे खतरनाक जैविक एजेंटों और जीवों पर काम करने वाली प्रयोगशाला के सहयोग से माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरक्युलोसिस  उपभेदों में विस्तारित करेंगे।"

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