Mumbai
Wastewater surveillance

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आईआईटी मुंबई) के वैज्ञानिकों ने रोगजनक विषाणु और जीवाणुओंका शीघ्र पता लगाने हेतु अपशिष्ट और अन्य जल निकायों में डीएनए का पता लगाने के लिए एक कम लागत वाला पोर्टेबल उपकरण विकसित किया है। यह सेंसर सीवेज और जल निकायों में ई-कोलाई जीवाणु और बैक्टीरियोफेज फाई 6 विषाणु जैसे रोगाणुओंका पता लगाने में सक्षम दिखाया गया है।

समुदाय के स्वास्थ्य का पता लगाने के लिए किसी भी क्षेत्र में अपशिष्ट और सीवेज जल में पाये जाने वाले रोगाणुओंका निरीक्षण किया जाता है। अध्ययनों ने दर्शाया है कि अपशिष्ट जल में रोगाणुओं की मात्रा जानने से किसी रोग के सामुदायिक स्तर पर प्रसार की मात्रा पता की जा सकती है।

आईआईटी मुंबई के विद्युत अभियांत्रिकी विभाग के प्रोफेसर सिद्धार्थ तल्लूर, जो नया पोर्टेबल सेंसर विकसित करने वाले टीम का हिस्सा हैं, कहते हैं,“रोगाणुओं और महामारी के फैलने का पता लगाने के लिए अपशिष्ट जल और सीवेज की निगरानी का प्रारंभ 1939 में हुआ जब सामुदायिक स्तर पर पोलियोके विषाणुओंका का पता लगाने के लिए अपशिष्ट जल निरीक्षण का प्रथम अनुप्रयोग किया गया।”

हाल के दिनों में, कोविड-19 महामारी ने एक बार फिर अपशिष्ट जल निरीक्षण के महत्व को सामने ला दिया है। सार्स-कोवि 2 से संक्रमित लोगों में से कुछ लक्षणहीन थे और उनमें संक्रमण के कोई बाहरी लक्षण नहीं दिख रहे थे। इसलिए केवल नैदानिक ​​​​निगरानी के साथ उन पर नज़र रखना चुनौतीपूर्ण था। अपशिष्ट जल निरीक्षण का डेटा मूल्यवान अनुमान प्रदान करके नैदानिक ​​​​निरीक्षण डेटा के लिए पूरक बना। कितने व्यक्ति संक्रमित थे और कौन से सार्स-कोवि २ वेरिएंट समुदाय में फैल रहे हैं यह अनुमान इससे मिले।

“अपशिष्ट जल-आधारित महामारी विज्ञान उन आबादी से डेटा संग्रह के लिए एक साधन है जिनके पास स्वास्थ्य देखभाल और बड़े पैमाने पर व्यक्तिगत स्तर के नैदानिक ​​​​परीक्षण पर्याप्त नहीं है,” प्रोफेसर तल्लूर कहते हैं।

वर्तमान में, रोगाणुओंका पता लगाने के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली विधि रिअल-टाइम क्वांटिटेटिव पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (आरटी-क्यूपीसीआर) है। यह तकनीक अपनी उच्च विशिष्टता (स्पेसिफ़िसिटी) और संवेदनशीलता के लिए जानी जाती है। हालाँकि, क्यूपीसीआर पद्धति को संचालित करने के लिए महंगे शोध-साधन (प्रोब) और प्रशिक्षित कर्मियों की आवश्यकता होती है, जिससे इसका अनुप्रयोग सुसज्जित प्रयोगशालाओं तक सीमित हो जाता है।

कोविड-19 महामारी में कई नए बायोसेंसर और डिटेक्टरों का आविष्कार हुआ जो अपशिष्ट जल के नमूनों से सार्स-कोवि 2 विषाणु को पहचान सकते थे। स्मार्टफोन-आधारित सेंसर भी रोगजनक डीएनए की उपस्थिति को दर्शाते हुए नमूने में रंग के  बदलाव का पता लगाते हैं। हालाँकि, इनमें संवेदनशीलता की कमी होती हैं या इन्हें संचालित करने के लिए महंगे अभिकर्मकों और उपकरणों, जीवाणुहीन प्रयोगशाला स्थितियों और विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है। आईआईटी मुंबई में विकसित नया पोर्टेबल सेंसर इन सीमाओं को काफी कम कर देता है। यह किसी नमूने में मौजूद किसी भी डीएनए के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है, फिर भी कम लागत का है।

आईआईटी मुंबई द्वारा विकसित यह उपकरण नमूनों में मिथाइलीन ब्लू (एमबी) डाई के साथ डीएनए की परस्पर क्रिया द्वारा हुए रंग परिवर्तन का पता लगाकर कार्य करता है। इंटरकलेशन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मेथिलीन ब्लू जैसे अणु, डीएनए के आधारों के बीच खुद को सम्मिलित करते हैं। इससे विभिन्न तरंगदैर्घ्य के प्रकाश को अवशोषित करने के पदार्थ के गुणधर्म में परिवर्तन होता है, जिससे इसके रंग में परिवर्तन होता है। परीक्षण के लिए तैयार किए गए नमूने में, इससे नमूने के रंग में बदलाव आ जाता है। इस कलरिमेट्रिक सेंसर प्रणाली को एक स्वदेशी रूप से निर्मित सर्किट के आधार पर डिज़ाइन किया गया है, जिसे चरण-संवेदनशील (फ़ेज़ सेन्सिटिव) डिटेक्शन सर्किट कहा जाता है और जो रंग में इस परिवर्तन का पता लगाता है। सेंसर में कलरिमेट्रिक सेंसर से जुड़ा एक नमूना धारक होता है। जब नमूना धारक में कोई नमूना रखा जाता है, तो सेंसर नमूने में उपस्थित डीएनए के कारण होने वाले किसी भी रंग परिवर्तन को पकड़ लेता है। इसे बाद में माप और रिकॉर्डिंग के लिए वोल्टेज सिग्नल में परिवर्तित कर दिया जाता है। आईआईटी मुंबई टीम ने एक मोबाइल एप्लिकेशन भी विकसित किया है जो ब्लूटूथ के माध्यम से इस वोल्टेज सिग्नल को पढ़कर स्मार्टफोन पर जानकारी प्रदर्शित कर सकता है।

Portable DNA sensor
आईआईटी मुंबई में विकसित नया पोर्टेबल डीएनए सेंसर. सौजन्य: प्रोफेसर सिद्धार्थ तल्लूर

पीसीआर एक प्रक्रिया है जिसका उपयोग किसी विशिष्ट डीएनए खंड को गुणा करने के लिए किया जाता है। डीएनए के साथ ही अशोधित पीसीआर उत्पादों में प्रक्रिया के लिए उपयोग किए जाने वाले प्राइमर और बफर जैसे रासायनिक संदूषक और एंजाइम और न्यूक्लियोटाइड जैसे कार्बनिक पदार्थ भी होते हैं। अशुद्ध पीसीआर उत्पादों में डीएनए का पता लगाने और शुद्ध डीएनए वाले नियंत्रण नमूनों से सेंसर इन्हें अलग पहचानने में सक्षम साबित हुआ।

चरण-संवेदनशील डिटेक्शन सर्किट, जिसे पूरी तरह से आईआईटी मुंबई में डिजाइन और निर्मित किया गया था, कम लागत वाले अर्धचालक (सेमीकंडक्टर) एकीकृत सर्किट घटकों और कम ऊर्जा लागत वाले एलईडी प्रकाश स्रोत से बनाया गया है। मेथिलीन ब्लू एक व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली डाई है – इसे प्राप्त करना आसान और सस्ता है। इन कारकों ने शोधकर्ताओं को सेंसर के निर्माण और संचालन की लागत को कम रखने में मदद की है।

प्रोफेसर तल्लूर का मानना ​​है, “अपशिष्ट जल-आधारित महामारी विज्ञान के लिए हमने विकसित की हुई तकनीक एक लागत प्रभावी समाधान की प्रत्यक्ष रूप में प्राप्ति का वादा करती है।”

सेंसर की अपनी कुछ सीमाएँ हैं। मेथिलीन ब्लू डाई के उपयोग के कारण डिवाइस विशिष्ट रोगजनक डीएनए के साथ ही अन्य डीएनए भी पकड़ लेगा।

प्रोफेसर तल्लूर के अनुसार, “यह (मेथिलीन ब्लू) उस नमूने में मौजूद किसी भी डीएनए के साथ बंध जाएगा। सेंसर की विशिष्ट रोगाणु डीएनए अलग से पहचानने की क्षमता (विशिष्टता) लक्ष्य प्रवर्धन के लिए उपयोग किया गया प्राइमर कौन सा है और कितना शुद्ध है इस पर निर्भर होती है (किसी विशिष्ट रोगाणु के डीएनए को लक्षित करने के लिए जोड़े गए रसायन)।”

अनुसंधान टीम का मानना ​​है कि उच्च विशिष्टता वाले अन्य डाई, लक्ष्य-विशिष्ट शोध-साधन और मजबूत माइक्रोफ्लुइडिक चिप्स जैसी प्रगति के साथ, प्रणाली को बेहतर संवेदनशीलता, विशिष्टता और मजबूती के लिए सुधारा जा सकता है।

डिवाइस का विकास अभी प्रारंभिक चरण में है और समय के साथ और अधिक सुधार की आशा है।

नए डिवाइस के भविष्य के बारे में प्रोफेसर तल्लूर टिप्पणी करते हैं, “हम नमूने की पूर्व-प्रक्रिया के लिए अधिक समय-कुशल और कम लागत वाली विधियों पर और मजबूत और अत्यधिक विशिष्ट परख विकसित करने पर काम कर रहे हैं जिनका उपयोग ऑप्टिकल और इलेक्ट्रोकेमिकल डीएनए सेंसर के लिए किया जा सकता है। हमने इन कल्पनाओं और कार्यों के आधार पर कुछ पेटेंट आवेदन दायर किए हैं, और भविष्य में इस दिशा में जैसे आगे प्रगति होती रहेगी वैसे और भी आवेदन दायर किए जाएंगे।”

इस सेंसर का सफल अनुप्रयोग महामारी फैलने की संभावना के लिए नियमित निगरानी और प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। विषाणु और जीवाणु संक्रमणों के लिए पर्यावरणीय परीक्षण विधियों में क्रांति लाने की क्षमता इस सेंसर में है, जिससे प्रारंभ में ही शीघ्र पता लगाया जा सकता है और रोकथाम की योजनायें शुरू की जा सकेंगी। सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि संस्थानों और राष्ट्रों के वित्त पर कोई भारी प्रभाव डाले बिना यह उपाय संभव होंगे।

 

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