बेंगलुरु
राज्य द्धारा किये जा रहे विकास में महिलाओं की भूमिका: विरोधाभासों की एक कहानी

भारत के कुछ जगहों पर सत्ता और संसाधनों के लिए निरंतर संघर्ष ने बड़े अनुभागो के लोगों को  स्वत्व अधिकार मांग करने और उन पर जबरन लगाए गये  संवैधानिक पद क्रम  को अस्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया है। इसके बजाय  वे सक्रिय रूप से अपने जीवन में सरकार के विभिन्न स्तरों की सत्ता को पलटने में भाग लेते हैं। यह सत्य है विशेष रूप से आदिवासी लोगों की बड़ी आबादी वाले उन क्षेत्रों में, जो लोग मताधिकार से वंचित महसूस करते हैं। वे संवैधानिक शक्तियों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष का सहारा लेते हैं और इस प्रक्रिया  को बगावत के रूप में जाना जाता है। ऐसा ही एक क्षेत्र पश्चिम बंगाल के पश्चिमी भाग में लाल गढ़ और रामगढ़ को घेरे हुए है। यह जंगल-महल या पश्चिम बंगाल के जंगल गलियारे के रूप में जाना जाता है। जंगल-महल के लोगों ने राज्य के संपूणॆ  इतिहास में सशस्त्र संघर्षों में भाग लिया है।इस सदी के अंत में  यह बगावत  भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ तेज हो गया। विशेष रूप से क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं जो राजनीति में सक्रिय थीं, वे सभी  संघर्ष में शामिल हो गईं।

2011 में तृणमूल कांग्रेस ने सत्ता में आने के बाद जंगल महल इलाकों में अपनी वैधता बहाल करके अपनी पहुंच का विस्तार करना चाहा। हथियारों का उपयोग करने के बजाय, इसने कल्याणकारी परियोजनाओं के माध्यम से लोगों को लुभाने की कोशिश की। यह एक प्रथा है जिसे सामाजिक वैज्ञानिक  ‘काउंटरिन्सर्जेंसी’ या जवाबी कार्यवाही कहते हैं। जंगल-महल की महिलाएं, जो अपने घरों के भीतर पारंपरिक रूप से हाशिए पर रहती थीं, उन्होंने 2000 के दशक में माओवादी आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। सरकार लोगों का विश्वास जीतने के लिए  विशेष रूप से महिलाओं के हित के  लिए कल्याणकारी योजनाओं को सुगम बनाना चाहती थी। इसी तरह की कई  योजनाओं की अन्य माओवादी प्रभावित राज्यों में सफलता के बाद सन 2013 में भारत की केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित और पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा सुविधा प्रदान की गई एक योजना ‘मुक्तिधारा’ ने जन्म लिया। इसने आदिवासी महिलाओं के समूहों को ऋण देने का वादा किया, जो ‘स्वयं सहायता समूह’या SHG कह लाए गए। यह अपने आस-पास मिलजुल  कर उद्यमशील परियोजनाओं का कार्य कर रहे थे।

क्षिण एशियाई विकास के जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन में मानवविज्ञानी लिपिका कामरा ने आदिवासी महिलाओं की मुक्तिधारा पर की गई प्रतिक्रिया पर अपना ध्यान केंद्रित करते हुए समझाया  कि “मेरा लक्ष्य इन प्रयासों की सफलता या विफलता को मापना नहीं , बल्कि इन परिस्थितियों  में राज्य और नागरिकों के बीच उभरे  संबंधों को समझना है।”

लिपिका वर्तमान में ओ पी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर हैं। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पीएचडी के दौरान यह अध्ययन किया। लिपिका ने अगस्त 2013 से मई 2014 तक और दिसंबर 2014 से जनवरी 2015 तक दो चरणों में क्षेत्रीय अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने  पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक बोली जाने वाली बंगला (बंगाली) भाषा बोलनी सीखी। जंगल-महल में निवास करने वाली प्रमुख जनजातियों में से एक का जिक्र करते हुए वह कहती हैं कि “बहुत सी संताली महिलाएं बांग्ला बोलने वाली पहली पीढ़ी हैं, और 20 से 30 वर्ष  के आयु वर्ग  में हैं। उनके परिवार में उनके अतिरिक्त बाकी सभी  संताली बोलते हैं।” वह साझा करती हैं कि, “जब मैंने बंगला बोलने में ग़लतियाँ कीं, तो महिलाएँ इसे मज़ेदार समझतीं और उसे सही करने की कोशिश करतीं।इसलिए मैंने उनके साथ  तालमेल बिठाते हुए भाषा सीखी।”

लिपिका बताती हैं कि अपने शोध में वह किस तरह अपने प्रतिवादी के लेंस के माध्यम से 'राज्य' को समझती हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के रिक्त स्थान और अभिनेता, जैसे  खंड विकास कार्यालय,  स्थानीय नौकरशाही और ग्रामीण -स्तर के कार्यकर्ता, अतः  यह सब 'राज्य' का हिस्सा हैं। अपने अध्ययन में उन्होंने जो प्रयोग किया उसे मानवविज्ञानी विस्तारित केस स्टडी  विधि  कहते हैं। इस पद्धति में शोधकर्ता किसी एक व्यक्ति का यथासंभव विस्तार से अध्ययन करता है और इस व्यक्ति के लेंस के माध्यम से सामान्य- सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं को सामने लाता है। लिपिका की  प्राथमिक विषय ने स्कूल में आगे पढ़ाई की थी।इसलिए अपने ‘स्वयं सहायता समूह’ में अपने साथियों की तुलना में राज्य के साथ व्यवहार  में उनके दृष्टिकोण में अधिक आत्मविश्वास था। हालांकि,वह उन विशिष्ट संबंधों का प्रतिनिधित्व करती है, जो संबंध महिलाओं के जवाबी कार्यवाही  संदर्भ में राज्य के साथ थे।

लिपिका के अनुसार, उनके क्षेत्रीय अध्ययन  के दौरान उनसे मिलने वाली सभी महिलाओं ने इस बारे में बात की कि कैसे राज्य की  सक्रिय भूमिका के बिना,उनके जीवन में किसी भी प्रकार का कोई  बदलाव लाने के बारे में सोचना भी  लगभग असंभव है। लिपिका बताती हैं, “यह बदलाव गृहस्थी  के बाहर जगह बनाने से शुरू होता है।” इसका मतलब खेतों में काम करना ही जरूरी नहीं है, जो राज्य के कल्याणकारी उपायों के शुरू होने से पहले ही बहुत लोग कर रहे थे। इसका मतलब यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र में,जैसे  गाँव या ब्लॉक में सम्मिलित  होना है। आदिवासी महिलाओं के साथ कई  संवादों के माध्यम से लिपिका ने अध्ययन किया कि कैसे महिलाऐंं  ब्लॉक विकास कार्यालयों का दौरा कर  और ‘स्वयं सहायता समूहों’ की बैठक करके राज्य के साथ संपर्क में रहती थीं।

लिपिका ने पाया कि बहुत से एसएचजी अपने  समूहों को दिए गए ऋणों में बहुत ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखते थे। महिलाएं वास्तव में राज्य के साथ एक पारस्परिक संबंध चाहती हैं क्योंकि इससे उन्हें अधिक दावे करने में मदद मिलती है।अन्यथा उन्हें ऐसा लगता है कि वे एकमुश्त ऋण लेकर गुम हो गए हैं।लिपिका बताती हैं कि उन महिलाओं के लिए घर से बाहर भूमिका निभाने के लिए राज्य के साथ भागीदारी महत्वपूर्ण थी। इससे उन्हें समाज में महत्व मिला, और उनके घरों के भीतर उनकी अहमियत बढ़ गई। इसने कुछ हद तक उन्हें अपने परिवार के भीतर पितृसत्तात्मक प्रथाओं से मुक्त किया और उन्हें अपने स्वयं के जीवन प्रक्षेपवक्र की तुलना में अपने बच्चों के लिए बेहतर भविष्य के सपने देखने में सक्षम बनाया।

राज्य भी यह दिखाना चाहता था कि लोगों के लिए वह अधिक उत्तरदायी था क्योंकि वह अपनी वैधता के पुनर्निर्माण में रुचि रखता था। लिपिका कहती हैं, “इसलिए जब मैंने क्षेत्रीय अध्ययन  किया, तो पाया कि महिलाओं को अक्सर खंड विकास कार्यालय तक बुलाया जाता था। वे वहाँ एक याचिका लिखतीं और तब भी उन्हें जवाब मिल जात,जबकि राज्य उनकी सभी मांगों को पूरा करने में सक्षम नहीं होता। राज्य का यह व्यवहार ग्रामीण भारत में अन्यतः उपेक्षित और भ्रष्ट विकास कार्यों के बहुत ही  विपरीत था। इस तरह की दो तरफा बातचीत से महिलाएं भविष्य में राज्य के साथ निरंतर जुड़ाव की  कल्पना करने लगीं। और लिपिका के विषय के मामले में, राज्य के द्वारा उसे दिए जाने वाला प्रत्यक्ष रोजगार भी दिखाई दे रहा था।

महिलाओं की व्यक्तिगत आकांक्षाओं और उनके साथ लगातार जुड़ने के लिए उनका उत्साह, हालांकि, राज्य की सोच से पूरे विपरीत बैठे। राज्य ने कल्पना की थी कि लोग ऋण के माध्यम से आत्मनिर्भर हो जाएंगे,जबकि महिलाएं स्थानीय राज्य अभिनेताओं के साथ एक सतत संपर्क चाहती थीं।

इस तरह के कार्यक्रम से जिन महिलाओं को लक्षित किया गया था , उन्होंने राज्य सत्ता की स्थापना के इस बड़े लक्ष्य में खुद को भाग लेते हुए नहीं देखा। लिपिका समझाती  हैं कि उनके लिए  अपने जीवन में बदलाव की कल्पना करना ही सब कुछ था।

निष्कर्षों से पता चलता है कि जवाबी कार्रवाई की राह वैसी नहीं है जैसी राज्य ने कल्पना की थी और ना ही लोगों के जीवन में भारी बदलाव आया है। क्या आदिवासी महिलाएं राज्य से जुड़ी रहेंगी, और क्या राज्य महिलाओं के लिए रोज़गार योजनाओं को निर्देशित करके आगे बढ़ेगा,  यह एक ऐसा मामला है जिसे देखा जाना अभी बाकी है। इस बीच, कई सियासी मामले पलट गए हैं ,और अगले साल पश्चिम बंगाल चुनाव की ओर बढ़ रहा है,  ऐसे में कई प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं।

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