मुंबई
पेय जल में से ज़हरीली आर्सेनिक को अलग करने की नई तकनीक

आई आई टी मुंबई के संशोधकोंने गावों में इस्तेमाल के लिए किफायती और कम रखरखाव वाला आर्सेनिक फ़िल्टर विकसित किया 

पीने के पानी में आर्सेनिक की अधिक मात्रा ज़हरीली साबित हो सकती है जो वयस्कों में एक ओर कैंसर, हृदय रोग और मधुमेह जैसी बीमारियाँ पैदा करती है तो दूसरी ओर नवजात शिशुओं में संज्ञानात्मक हानि का कारण बन सकती है। परन्तु अब, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई  (आईआईटी मुंबई) के वैज्ञानिको ने एक फ़िल्टर विकसित किया है जो पीने के पानी में आर्सेनिक को स्वीकार्य स्तर तक कम कर सकता है।

भारत के २१ राज्यों में रहने वाले करीब २४ करोड़ लोग आर्सेनिक की अधिक मात्रा से पूरित पानी पी रहे हैं। उनमें से ज्यादातर, गंगा और ब्रह्मपुत्र के मैदानी  इलाकों में रहते हैं, जहाँ ट्यूब  वेल के अनुपचारित पानी में इस कैंसर पैदा करने वाले रसायन की भारी मात्रा पाई जाती  है। विकसित देशों और बड़े शहरों में आर्सेनिक हटाने सहित पानी को शुद्ध करने के लिए केंद्रीकृत जल उपचार प्रणाली उपलब्ध है। भारत के ग्रामीण इलाकों में, जहां बस्तियाँ छोटी हैं और  फ़ैली हुई हैं, वहाँ केंद्रीय जल उपचार सुविधा  पहुँचाना संभव नहीं है।वहीं  दूसरी ओर, गाँव और छोटे  शहरों  के  स्तर पर पानी शुद्ध करने के लिए लगाई जाने वाली छोटी इकाइयाँ भी उपयोगी नहीं हैं क्योंकि उन्हें चलाने के लिए एक अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ेगी और ये छोटी इकाइयाँ अक्सर महंगी और अक्षम होती हैं।

आईआईटी मुंबई में सेंटर फॉर एनवायरमेंटल साइंस एंड इंजीनियरिंग के प्राध्यापक संजीव चौधरी और उनकी टीम द्वारा विकसित नए आर्सेनिक फिल्टर को भारत भर में पाए जाने वाले मौजूदा सामुदायिक हैंडपंप से जोड़ा जा सकता है। यह फ़िल्टर लोहे की कीलों से प्राप्त लोहे  का इस्तेमाल कर  उनकी रासायनिक प्रतिक्रिया आर्सेनिक और ऑक्सीजन से करवाता है जिसके कारण आर्सेनिक को आसानी से हटाया जा सकता है । अच्छी बात यह है कि इस फ़िल्टरिंग प्रक्रिया में किसी हानिकारक रसायन  का इस्तेमाल नहीं होता है बल्कि अन्य दूसरी तकनीकों की तुलना में २० गुना तक कम लोहे का उपयोग होता है।

वैज्ञानिकों का दावा है कि इस नए विकसित फ़िल्टर से हर दिन एक गाँव में लगभग २०० परिवारों को सुरक्षित पेयजल प्रदान किया जा सकता है जिसमे तक़रीबन १०० गुना तक कम आर्सेनिक की मात्रा होगी और ये अंतरराष्ट्रीय मानकों  पर भी पूरी तरह खरा उतरता है । इस फ़िल्टर की खास बात यह है कि इसका डिज़ाइन लचीला है और इसे बड़े आसानी से किसी भी बड़े फ़िल्टर सिस्टम में फिट किया जा सकता है। एकत्रित हुआ आर्सेनिक-दूषित कचरा बिना किसी रिसाव के लगभग पांच वर्षों तक इस फिल्टर में रह सकता है जो इसे और भी सुरक्षित बनाता  है। इन  फिल्टरों का  रख रखाव बहुत ही आसान है और इन्हें केवल हर तीन महीने में एक बार साफ करने की आवश्यकता पड़ेगी।

स्थानीय समुदाय से बनवाकर इस फ़िल्टर की लागत को भी काफी कम किया जा सकता है। एक उदाहरण  देते हुए प्राध्यापक संजीव चौधरी कहते हैं, "पश्चिम बंगाल में, इसी फिल्टर सिस्टम को बनाने में दो स्थानीय लड़के शामिल थे, और बाकी स्थानीय मजदूरों और प्लम्बरों ने मिलकर इसको लगाने का काम किया।" प्राध्यापक संजीव चौधरी  का मानना है कि बलिया और आसपास के क्षेत्रों में भी एक वहीं के निवासी की सहायता लेकर कुछ मजदूरों और प्लंबर की मदद से इस फ़िल्टर को आसानी से लगाया जा सकता है।

इस फिल्टर इकाई को ग्रामीण इलाकों में मौजूदा हैंडपंप में ही लिफ्ट और फोर्स  की मदद से जोड़कर काम में लिया जा सकता है या फिर मौजूदा भारत मार्क II पंप को ही संशोधित किया जा सकता है। फ़िल्टर इकाई में दो टैंक होते हैं। प्रत्येक टैंक में दो खंड होते हैं- एक लोहे की कील का और दूसरा समुच्चय पत्थर का । लोहे की कील का काम होता है कि वो  पानी में मौजूद विघटित ऑक्सीजन की मदद से आर्सेनिक को हटाने योग्य रूप में परिवर्तित करे। समुच्चय पत्थर पानी को फ़िल्टर करता है और अन्य निलंबित अशुद्धियों को हटा देता है। दोनों टैंक मिलकर इस तरह काम करते हैं कि अगर कोई एक काम न करे तो दूसरा पानी को फ़िल्टर करता रहेगा।

वैज्ञानिकों का कहना है कि १००-२०० घरों के लिए इस नए फिल्टर को लगाने के लिए लगभग  ₹४०,०००  से ₹७५,००० तक की लागत आ सकती है, जो हर क्षेत्र में अलग होगी क्योंकि सामग्री और परिवहन की लागत क्षेत्र अनुसार बदलती रहती है। साथ ही, फ़िल्टर को साफ करने के लिए वार्षिक रखरखाव की अतिरिक्त लागत लगभग ₹१००० तक आ सकती है। इस हिसाब से देखा जाये तो पाँच लोगों के परिवार के लिए आर्सेनिक मुक्त पानी प्राप्त करने की लागत लगभग एक रुपये प्रति माह से भी कम होगी।

आर्सेनिक को हटाने वाले इस फिल्टर का वैज्ञानिकों ने पहली बार २००८ में पश्चिम बंगाल के चार गाँवों में परीक्षण किया था। अपनी पहली सफलता के बाद, उन्होंने इस फ़िल्टर का दूसरी जगहों पर परीक्षण किया और गंगा के मैदानी इलाकों में लगभग ६० जगह इसको लगाया-उत्तर प्रदेश में २७ फिल्टर, बिहार में २१, असम में ४ और पश्चिम बंगाल में ८। समय समय पर, ग्रामीणों से प्राप्त जानकारी और उनकी जरूरतों के आधार पर वैज्ञानिकों ने इस फिल्टर के डिजाइन में कई सुधार किये है।

वैज्ञानिकों के अनुसार, आर्सेनिक फिल्टर की स्थापना और उपयोग में सबसे बड़ी चुनौती ये है कि गॉंवो में इस तरह पानी को साफ़ करने वाली तकनीकों के बारे में आज भी जानकारी बहुत कम है। सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे फिल्टर को बढ़ावा देने के प्रयास में और तेज़ी लानी होगी। इस तकनीक को लेकर गाँव वालों में शुरुआती अनिच्छा स्वाभाविक है क्योंकि पहले इस्तेमाल किये गए तरीक़े या तो जटिल थे या, कुछ मामलों में, बहुत महंगे थे। हालाँकि यह नया फिल्टर इन सभी कमियों को संबोधित करता है, परन्तु गाँव में इसके इस्तेमाल में अभी भी कुछ बुनियादी चुनौतियाँ हैं, जैसे हैंडपंप की गुणवत्ता। प्राध्यापकचौधरी बताते हैं, "हमारा आर्सेनिक फिल्टर अच्छी गुणवत्ता वाले पानी को वितरित करने में काफी मजबूत प्रतीत होता है, लेकिन अत्यधिक उपयोग होने के कारण हैंडपंप अक्सर खराब हो जाया करते हैं और तब इन फिल्टरों का उपयोग नहीं हो पाता ।

वैज्ञानिकों के लिए एक और चुनौती यह भी है कि जागरूकता की कमी के चलते फिल्टर और हैंडपंप के रखरखाव में भी मुश्किलें आती है। प्राध्यापकचौधरी कहते हैं, "चूंकि आर्सेनिक फिल्टर शुरुआत में मुफ्त में मुहैया कराया गया था, इसलिए बाद में ग्रामीण हैंडपंप के रखरखाव को भी मुफ्त में ही करवाना चाहते हैं। परन्तु जहाँ लोग थोड़ा भी जागरूक हैं, हमारे आर्सेनिक फिल्टर वहाँ अभी भी सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं। इसलिए इस तकनीक की सफलता लोगों की जागरूकता और उनके भुगतान करने की क्षमता पर निर्भर करेगी।,” ऐसा कहकर प्राध्यापकचौधरी ने अपनी बात समाप्त की।

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