मुंबई
आई आई टी मुंबई के  शोधकर्ताओंने बहुलक आधारित जैवकृत्रिम अग्न्याशय का निर्माण किया

आई आई टी मुंबई के  शोधकर्ताओंने बहुलक आधारित जैवकृत्रिम अग्न्याशय का निर्माण किया

अघोषित रूप से भारत मधुमेह (डायबिटीज़) रोग की राजधानी कहलाता है। भारत में चार करोड़ से भी अधिक मधुमेह रोगी हैं, जो किसी भी राष्ट्र की तुलना में सबसे अधिक है। भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था पर मधुमेह के बढ़ते प्रभाव के मद्देनज़र चिकित्सकों, वैज्ञानिकों और आम जनता का एकजुट होकर इस समस्या का सामना करना और हल निकलना आवश्यक हो गया है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई (आई आई टी मुंबई) के शोधकर्ताओं के पास मधुमेह रोगियों के लिए अच्छी खबर है। शोधकर्ताओं ने बहुलक (पॉलीमर) आधारित एक जैवकृत्रिम (जैविक एवं कृत्रिम पदार्थ से मिलकर बना हुआ) अग्न्याशय विकसित किया है जो शरीर में प्रत्यारोपित करने पर मधुमेह से लड़ने में लाभदायक हो सकता है।

डायबिटीज़ मेलिटस एक ऐसा जीर्ण उपापचयी विकार है जिसमें रक्त में ग्लूकोज़ का स्तर लंबे समय तक बना रहता है। एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में, भोजन में पाया जाने वाला कार्बोहाइड्रेट टूटकर ग्लूकोज़ में बदलता है जो ऊर्जा प्रदान करता है। यह प्रक्रिया अग्न्याशय से उत्पन्न होने वाले इंसुलिन नामक हॉरमोन की सहायता से संभव हो पाती है। डायबिटीज़ मेलिटस के रोगियों में या तो पर्याप्त मात्रा में इंसुलिन उत्पन्न नहीं होता है (टाइप १ मधुमेह) या फिर उत्पन्न इंसुलिन का सही उपयोग नहीं हो पाता है (टाइप २ मधुमेह)। कुछ मामलों में, यह दोनों का संयोजन भी हो सकता है।

टाइप १ मधुमेह १४ वर्ष तक की उम्र के एक लाख में से तीन बच्चों को प्रभावित करती है,  इसके इलाज के लिए चिकित्सक इंसुलिन इंजेक्शन, इंसुलिन पम्प या अग्न्याशय/ आईलेट (islet) कोशिका (इंसुलिन का स्रोत) प्रत्यारोपण की सलाह देते हैं। हाल ही में आईलेट कोशिकाओं के साथ जैवकृत्रिम अग्न्याशय विकसित करने के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई है। हालांकि, ये जैवकृत्रिम अग्न्याशय प्राकृतिक अग्न्याशय के कार्य की नक़ल कर सकते हैं, इसमें जैव-अनुकूलता एक बड़ी बाधा है। जैव-अनुकूलता ना होने की वजह से शरीर इस जैवकृत्रिम अग्न्याशय को बाहरी वस्तु मानता है जिसके  कारण शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, जो जैवकृत्रिम अग्न्याशय के कार्यकुशलता को कम कर सकती है ।

इस शोध में शोधकर्ताओं ने एक पॉलीमर के खोखले तन्तु की झिल्ली के उपयोग से जिस जैवकृत्रिम अग्न्याशय का विकास किया है वह जैव-अनुकूल है और इंसुलिन उत्पन्न करने वाली कोशिकाओं को बचाए रखने में सक्षम है। आई आई टी मुंबई के प्रोफ़ेसर जयेश बेल्लारे  (जो इस अध्ययन के मुख्य अन्वेषक भी हैं), के अनुसार “खोखले तन्तु की झिल्ली एक मिलीमीटर व्यास की पतली नली है जिसकी दीवारों पर छिद्र होते है और जब तरल प्रदार्थ इस नली में से गुज़रता है तब कुछ चुनिंदा घटक दीवार पर रोक लिए जाते हैं, बाकी प्रवाहित हो जाते हैं। इस तरह के “चयनित पृथक्करण” को कई प्रक्रियाओं में उपयोग में लाया जाता है, उदाहरण के लिए  डायलिसिस।”

शोधकर्ताओं ने इस खोखली तन्तु की झिल्लियों को पॉलीसल्फोन नामक पॉलीमर जो कि कठोरता  और स्थिरता के लिए जाना जाता है, के साथ एक योगशील यौगिक TPGS (डी -अल्फा टोकोफेरील पॉली ईथाइलिन ग्लाइकॉल १००० सक्सिनेट ) को मिलाकर बनाया है। प्रोफेसर बेल्लारे के कथनानुसार इस खोखले तन्तु की झिल्ली में कोशिका का विकास, स्वाभाविक रूप से बाह्यकोशिकीय मेेट्रिक्स में होने वाले विकास के समान है, और साथ ही यह कोशिकाओं के प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न किये बिना ही इंसुलिन को रोगी तक पहुँचा सकती  है।

शोधकर्ताओं द्वारा विकसित इन खोखले तन्तु कि झिल्ली कि आंतरिक सतह पर नैनो मीटर आकर के छिद्र  हैं जो इंसुलिन के चयनित पृथक्करण के लिये ज़िम्मेदार हैं। झिल्ली की बाकी सतह ज़्यादा छिद्रपूर्ण होती है और ये छिद्र बड़े आकर के होते हैं, यह सतह स्थायित्व प्रदान करती है। शोधकर्ताओं ने इस जैवकृत्रिम अग्न्याशय को एक या अधिक खोखले तंतुओं को साथ में रखकर एक लघु जैव-रिएक्टर जैसा ढाँचा बनाया है जिसमें  इंसुलिन का उत्पादन होता है।

शोधकर्ताओं ने अपने इस यंत्र का प्रयोग नाभि नलिका से ली गई मानव स्टेम कोशिकाओं और  सूअर के अग्न्याशय की आईलेट कोशिकाओं के साथ किया है। प्रोफेसर बेललरे का कहना है कि पहली बार हमने अपने अनोखे और पेटेंट खोखले तन्तु की झिल्ली में मानव स्टेम कोशिकाओं और सूअर की कोशिकाओं को सफलतापूर्वक समाहित किया है। शोधकर्ताओं ने इस यंत्र को मधुमेह ग्रस्त चूहों में ३० दिनों के लिए प्रत्यारोपित किया तो पाया कि यह प्रत्यारोपण के कारण शरीर के किसी भी अंग में किसी भी तरह की कोई विषमता नहीं पायी गयी। इसके अलावा, चूहों कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं ने इस प्रत्यारोपण को अस्वीकार भी नहीं किया है और प्रत्यारोपित कोशिकाओं पर रक्त वाहिकाओं कि वृद्धि भी देखी गई है।

यह शोध विश्व में टाइप-१ मधुमेह से पीड़ित तक़रीबन ५ लाख ४२ हज़ार से भी ज्यादा बच्चों की  ज़िंदगी को बेहतर बना सकता है। तो इस जैवकृत्रिम अग्न्याशय की प्रक्रिया को अमलीजामा कब पहनाया जाएगा? प्रोफेसर बेललरे का कहना है कि – “हालांकि इस आईलेट कोशिकाओं के प्रत्यारोपण को मधुमेह का इलाज बनाने में अभी बहुत समय है लेकिन सही पदार्थ व कोशिकाओं के चयन के साथ यह संभव हो सकता है। शोधकर्ताओं का अगला कदम है कि वह इस अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए बड़े जंतुओं पर इस यंत्र का प्रभाव देखें। शोधकर्ताओं का निष्कर्ष यह है कि अभी इस यंत्र को एक बुनियादी तकनीक के रूप में देखा जा रहा है और इसे मानव पर इस्तेमाल करने से पहले बहुत कुछ करने कि आवश्यकता  है।”

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