Bengaluru
Photo: Royle’s pika by Sabuj Bhattacharyya

क्या आप जानते हैं कि पोकेमॉन फ्रैंचाइज़ी का प्रसिद्ध चरित्र, पिकाचु नामक एक ठंडे पहाड़ी क्षेत्रों में पाए जाने वाले छोटे जानवर से प्रेरित था? ये छोटे गोल मटोल स्तनधारी हैं जिनके खरगोशों के साथ निकट सम्बन्ध हैं और जिन्हें पिका के रूप में जाना जाता है। ये ज्यादातर चट्टानी पहाड़ी ढलानों पर पाए जाते हैं और एशिया, उत्तरी अमेरिका एवं पूर्वी यूरोप के कुछ हिस्सों के ठंडे क्षेत्रों के मूल निवासी हैं। ये छोटे कान वाले शाकाहारी जीव अल्पाइन पारिस्थितिकी तंत्र की खाद्य श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं क्योंकि ये मांसाहारी जीवों जैसे कि हिम तेंदुआ, भूरा भालू, तिब्बती लोमड़ी और शिकारी पक्षियों आदि के लिए भोजन हैं।

‘इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हाल ही के एक अध्ययन में इस बात के प्रमाण मिले हैं कि जलवायु परिवर्तन से इन पर्वतीय निवासी स्तनधारियों को खतरा है। रॉयल पिका (ओकोटोना रोइली) पर यह जनसांख्यिक आनुवांशिकी अध्ययन, भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc), बेंगलुरु के शोधकर्ताओं द्वारा आयोजित किया गया था, जो जैव प्रौद्योगिकी विभाग, प्रो-नेचुरा फाउंडेशन और वेलकम ट्रस्ट / डीबीटी इंडिया एलायंस फैलोशिप द्वारा वित्त पोषित था। इसमें शोधकर्ताओं ने जनसंख्या संरचना और पिकाओं के वितरण पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव  को समझने की कोशिश की है।

शीतानुकूलित प्रजातियाँ होने के कारण, पिका तापमान में परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं। हाल ही के अध्ययनों ने संकेत दिया है कि ग्रीष्म ऋतु तापमान में वृद्धि से ऊष्मीय दबाव हो सकता है, और साथ में सर्दियों में बर्फ की कमी, जो उष्ण रोधक के रूप में कार्य करती हैं, जिससे पिकाओं को अत्यधिक ठंड लग सकती है, उन्हें मार भी सकती है। वसंत के दौरान बर्फ का पतला आवरण होना उनकी प्रजनन क्रिया की सफलता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकता है। चूँकि पिका शाकाहारी पौधेों/ घास पर निर्भर करते हैं, जो वर्षा के पैटर्न में बदलाव के प्रति संवेदनशील होते हैं, इसलिए सूखे जैसे हालात उनके भोजन की उपलब्धता को कम कर सकते हैं। इसके अलावा, बदलती जलवायु और संकीर्ण पारिस्थितिक आवश्यकताओं ने, पिका की आबादी को अधिक ऊँचाई तक सीमित कर दिया है, जिससे उनके आवास और वितरण का विखंडन हो रहा है।

इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने पश्चिमी हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में रॉयल पिका की आबादी का विश्लेषण किया। उन्होंने पाँच स्थानों से रॉयल पिका के मलीय नमूनों से डीएनए एकत्र किए और उनके एवं उनकी आबादी के बीच और उनके बीच आनुवंशिक अंतर का विश्लेषण किया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि जो पिका एक किलोमीटर की ज्यादा दूरी पर थे उनमें कम आनुवांशिक समानता थी और जो एक दूसरे से बहुत दूर थे उनमें उच्च आनुवांशिक विविधता थी। दूसरी ओर, जो करीब थे उनमें तुलनात्मक रूप से कम आनुवांशिक विविधता थी।

“इस घटना को ‘आइसोलेशन  बाई डिस्टेंस‘ के नाम से जाना जाता है। हाल ही के दिनों में किये गए अध्ययन से पता चलता है कि वो जनसंख्या जो भौगोलिक रूप से करीब है और किसी भी बड़ी नदी या चौड़ी घाटी द्वारा अलग-थलग नहीं है, जीन प्रवाह, या एक दूसरे के बीच आनुवांशिक सामग्री के स्थानांतरण का अनुभव कर सकती है। इसलिए, वे कम आनुवांशिक विविधता रखते हैं ”, आईआईएससी के इस अध्ययन के मुख्य लेखक डॉ. सबुज भट्टाचार्य बताते हैं।

शोधकर्ताओं ने पिका के बीच मध्यम स्तर के अंत:प्रजनन के का भी पता लगाया है। अंत:प्रजनन के परिणामस्वरूप आनुवांशिक भिन्नता का नुकसान होता है, जिससे वे विभिन्न रोगों और आनुवांशिक विकारों के प्रति अतिसंवेदनशील हो जाते हैं। "पिकाओं की सीमित प्रसार क्षमता और नेटाल फिलोपैटरी ( जिसमें संतानें जन्मस्थान के पास ही प्रजनन करती हैं) अक्सर उच्च अंतर्ग्रहण का कारण बनते हैं। पर्यावास विखंडन और भौगोलिक अवरोधों की उपस्थिति भी इनको आवासों में जाने से रोक सकती है, जिसके परिणामस्वरूप अंत:प्रजनन होता है।” डॉ भट्टाचार्य कहते हैं जो पिछले ग्यारह वर्षों से पश्चिमी  हिमालय में रॉयल पिका का अध्ययन  कर रहे हैं।

अध्ययन में हाल के वर्षों में रॉयल पिका की घटती संख्या का प्रमाण भी दिखा- यह एक ऐसी घटना है जिसे जनसंख्या मार्गावरोध भी कहा जाता है। शोधकर्ता इसका श्रेय हिमालय में बदलती जलवायु को देते हैं। जैसे-जैसे हिमनद पुनरावृत्त होते हैं और सर्दियों की ठंडक कम हो जाती है, पिका जैसे जलवायु-संवेदनशील स्तनधारियों को इसके दुष्प्रभाव का सामना करना पड़ता है। “स्थानीय स्तर पर और विश्व स्तर पर अपनी जनसंख्या के विलुप्त होने से बचने के लिए, पिका को अपने दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए न्यूनतम व्यवहार्य जनसंख्या आकार की आवश्यकता है। इसलिए, जनसंख्या की मार्गावरोध की मौजूदगी भविष्य में इन्हे विलुप्त होने के कगार पर ला रही है। जलवायु परिवर्तन उन्हें कैसे प्रभावित करता है, इस बारे में हमारी समझ को बेहतर बनाने के लिए हमें दीर्घकालिक शोध से प्राप्त अधिक आकड़ों की आवश्यकता है" कहते हुए डॉ भट्टाचार्य ने अपनी बात समाप्त की ।

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