मुंबई
अराती हल्बे, गुब्बी लैब्स, फ्लिकर के माध्यम से

आईआईटी मुंबई का संशोधन बताता है की हवा में मौजूद प्रदूषक  कृषि के लिए उपलब्ध जल को प्रभावित करते है।

लगभग दो तिहाई भारतवासियों की रोज़ी रोटी कृषि पर निर्भर करती है। अधिकांश खेती वर्षा पर आधारित होने के कारण कितनी वर्षा कब होती है इसका प्रभाव उनपर पड़ता है।  बीसवीं शताब्दी के दूसरे अर्ध भाग में कम वर्षा के कारण अनाज उत्पाद कम हुआ है। क्या अनियमित वर्षा का सम्बन्ध प्रदूषण के बढ़ते स्तर से जुड़ा है? भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुंबई में किया अध्ययन यही  सूचित करता है। खोजकर्ता श्री.प्रशांत दवे, प्राध्यापक भूषण और प्राध्यापक चन्द्रा वेंकटरामन ने पाया कि एरोसोल्स बढ़ने के कारण वर्षा कम होती है जिससे सूखा पड़ता है और उसका परिणाम कृषि पर होता है।  

एरोसोल मतलब ठोस कण, तरल बूंदों, या ठोस-तरल कणों का ऐसा मिश्रण है जो हवा में निलंबित रहते हैं। धूल, समुद्री नमक, जैविक इंधन जलाने से उत्सर्जित होनेवाले सूक्ष्म कण, वाहनों से होनेवाला उत्सर्जन इन सबकी वजह से वातावरण में एरोसोल्स का स्तर बढ़ता है। सूरज की रौशनी अवशोषण करने वाला ब्लैक कार्बन या कालिख, और सल्फेट और नायट्रेट जैसे मिश्र जो प्रकाश फैलाते हैं, वातावरण में एरोसोल को बढ़ाने के महत्वपूर्ण घटक हैं।

पिछले अध्ययन में वातावरणीय एरोसोल्स में होनेवाले बदलाव, वर्षा के मौसम में होनेवाली ज्यादा या कम वर्षा के लिए इसे जिम्मेदार ठहराया गया है, अब तक इनके सबंधों का पता नहीं चला है, खास तौर पर, इसकी वजह और परिणामों का सम्बन्ध, अवलोकन डेटा भी नहीं कर पाया।

“हमने एक सवाल पूछा था, क्या हम इस सम्बन्ध के परे जा सकते हैं, और मुख्य रूप से अवलोकन डेटा का उपयोग करते हुए एरोसोल्स और मानसून की वर्षा के परिवर्तनों के बीच संबधों को समझने के लिए वातावरण के रूप में एक प्रणाली स्थापित कर सकते हैं?” ऐसा प्रोफेसर मणी भूषण ने कहा।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स (नेचर समूह द्वारा प्रकाशित) द्वारा प्रकाशित किये जानेवाले अध्ययन में खोजकर्ताओं ने २००० से २००९ के दौरान सैटलाइट से मिली हुई जानकारी से एरोसोल का स्तर और बादलों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के साथ ही धरती पर आधारित उपकरणों के सहारे वर्षा की मात्रा का गणन किया है। उन्होंने इस जानकारी का विश्लेषण करके एरोसोल्स का अस्तित्व और वर्षा की उपस्थिति के बीच के सम्बन्ध में क्षेत्रीय विभिन्नता का अध्ययन किया है।     

मौसम का परिवर्तन का पैटर्न अस्तव्यस्त होने के बावजूद, वो खुद को दोहराने वाली कुछ दृश्य और अदृश्य मूलभूत प्रक्रियाओं का परिणाम है। मौसम वैज्ञानिक वातावरण के अध्ययन को चार हिस्से में विभाजित करते हैं। माइक्रो – मेसो – साइनोप्टिक और –ग्लोबल - जो इन प्रक्रियाओं के आकार और कालावधि पर निर्भर है। बादलों का झुण्ड या झोंके जैसी सूक्ष्मदर्शी घटनाएँ एक किलोमीटर या उससे कम दायरे के एक क्षेत्र में होती है, जब की जागतिक पैमाने पर यही घटनाएँ हजार किलोमीटर से भी अधिक होती है और ये कम से कम एक महीने तक चलती है।   

इस अध्ययन से दस से हजार किलोमीटर के अंतर में फैली हुई मेसोस्केल की प्रक्रियाओं की जाँच भारत के ऐसे इलाकों में की जाती हैं जहाँ एरोसोल का प्रमाण ज्यादा और वर्षा का प्रमाण कम है. इस परिमाण पर, बहती हवा और पानी के बीच की प्रक्रिया, वर्षा का महत्वपूर्ण घटक है। सूरज की गर्मी से धरती की सतह गर्म होती है, बाद में उसके उपर की हवा गर्म होती है। गर्म हवा ऊपर जाते वक्त अपने साथ वाष्पित किया हुआ पानी ले जाती है और ये पानी ठंडा होकर बादलों की बूँदें बनती है। कुछ समय बाद ये बूँदें इकट्ठा होती है और बढ़ते वजन के कारण जमीन पर गिरती हैं ।

मगर एरोसोल का प्रमाण बढ़ने की वजह से वातावरण का नाज़ुक संतुलन बिगड़ जाता है। एरोसोल्स सूरज की रौशनी सोख लेते हैं जिससे जमीन पर पड़ने वाली सूरज की रौशनी कम हो जाती है और जमीन की सतह ठंडी रह जाती है,  जिस परत को एरोसोल्स सोख लेता है वो परत गर्म रहती है। नतीजा, बादलों के रूप में बढ़ने की बजाय पानी का वाष्प भूमि के समान्तर रूप में विभाजित होता है और फ़ैल जाता है। साथ ही, हवा रुक जाती है और हवा और पानी की लंबवत गतिविधि कम जाती है, इसी कारण वर्षा का परिमाण कम  हो जाता है।  

इस अध्ययन के खोजकर्ताओं ने पाया कि अधिक स्तर के एरोसोल वाले क्षेत्रो में एक ही मौसम में सात दिनों से अधिक समय तक बार बार वर्षा  में रूकावट आई। अगर यही स्थिति जारी रहे , तो इस रूकावट की वजह से अकाल पड़ सकता है और अकाल की स्थिति बढ़ सकती है। सूक्ष्म पैमाने पर, वर्षा की एक बूंद का निर्माण, वाष्प के धूल  के एक कण के इर्द गिर्द जमा होने से होता है। खोजकर्ताओं ने ये भी पता लगाया है कि अगर एरोसोल्स का स्तर बढ़ जाये तो बादलों की बूंदों का आकार बदलता है, और इसी वजह से वर्षा कम होती है। हालाँकि, अब तक उन्हें इन दोनों के बीच का परस्पर सम्बन्ध नहीं मिल पाया है।     

इसलिए इस अध्ययन के अनुसार, एरोसोल्स के उच्च स्तरीय क्षेत्रों में, बार बार वर्षा कम होने की वजह, एरोसोल्स द्वारा सूरज की रौशनी सोख लेना है, जिसकी वजह से पानी का वाष्प और हवा की ऊपर की ओर की गतिविधि में रूकावट पैदा हो जाती है, और नमी क्षितिज के समांतर फ़ैल जाती है। एरोसोल्स के बढ़ते हुए स्तर का असर एक ही दिन में हो जाता है और इसका प्रभाव दो या इससे अधिक दिन तक रहता है।

“इस खोज से हम वायु प्रदूषण और वातावरण के परिवर्तन के बीच का सम्बन्ध, क्षेत्रीय मानसून वर्षा के परिवेश में समझ पाए हैं। भविष्य में मानवी गतिविधियों द्वारा एरोसोल्स उत्सर्जन का प्रमाण बढ़ना अपेक्षित है, ऐसे में इस मुद्दे को समझ पाना बहुत जरुरी है। ऐसा प्रोफ़ेसर चंद्रा वेंकटरमण ने जताया।  

इस अध्ययन को सहायता मिली है -भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई, सेंटर ऑफ एक्सेलेंस इन क्लायमेट स्टडीज (आई आई टी बी - सीईसीएस), डिपार्टमेंट ऑफ सायन्स अँड टेक्नॉलॉजी की परियोजना (डीएसटी,), न्यू दिल्ली, भारत ,से।

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